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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८
अष्टपाहुड एवं प्रवचनसार के परिप्रेक्ष्य में योग्य-अयोग्य साधु विवेचन
आनन्द कुमार जैन*
श्रमण जीवन समदृष्टि से परिपूर्ण है और इसके प्रत्येक प्रसंग में चित्त की सामञ्जस्यता बनाये रखना ही श्रमणजीवन का चरम लक्ष्य है। यह प्रक्रिया श्रमणजीवन के प्रारंभ से समाधिपर्यन्त स्वभाववत् होती है।
प्रत्याख्यान तथा प्रतिक्रमण द्वारा क्वचित् कदाचित् श्रमणचर्या में लगे दोषों का परिमार्जन साधु करते हैं । परन्तु साधु आगमोक्त चर्या का पालन करने का मनवचन - काय से परिश्रम सदैव ही करते हैं। जो इनमें तत्परता से सन्निहित हैं, वे तो योग्य हैं; भले ही अज्ञानतावश चर्या में दोष लगता रहे, किन्तु जो ज्ञानवान् होकर प्रमादावस्था में दोषों को करते हैं, वे अयोग्य की श्रेणी में गणनीय हैं। वस्तुतः साधु तो वह है जो मोक्ष प्राप्ति के हेतुभूत मूलगुणों तथा तपश्चरण आदि में त्रियोगपूर्वक सदैव तत्पर रहते हैं। यदि चिरप्रव्रजित साधु भी प्रमादवश यत्याचार में स्खलित होता है तो पूर्व में किया गया समस्त तप व्यर्थ ही समझना चाहिए क्योंकि आगमोक्त आचार का पालन ही उसका लक्ष्य है।
प्रस्तुत आलेख में आया साधु शब्द विस्तृत परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त है, अतः यहाँ आचार्य, उपाध्याय तथा साधु - इन तीनों का विवेचन अपेक्षित है। किन्तु प्रस्तुत आलेख में तीनों पदों का प्रयोग न करते हुए मात्र साधु में ही तीनों का समावेश किया गया है। अर्थात् साधु शब्द को केन्द्रित करते हुए आचार्य तथा उपाध्याय का भी कथन इसमें निहित है।
इसी तरह योग्य तथा अयोग्य- इन दो शब्दों का क्षेत्र विस्तृत है, किन्तु मूलाचारकार ने किन-किन सन्दर्भों में इसका प्रयोग किया है, साथ ही अष्टपाहुड एवं प्रवचनसार के रचनाकार ने किन पहलुओं को छुआ, यह इस आलेख का शोध पक्ष है । मूलाचार में विद्या-अध्ययन हेतु स्व-संघ से अन्य - य-संघ में जाने वाले साधु का
* शोध छात्र, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, का०हि०वि०वि०,
वाराणसी ।
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