Book Title: Sramana 2008 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 196
________________ साहित्य सत्कार ग्राम्यभारत : श्रेष्ठ परम्परा, लेखक - बैद्यनाथ सरस्वती, प्रकाशक - निर्मल कुमार बोस स्मारक प्रतिष्ठान, वाराणसी। प्रस्तुत पुस्तक, प्रो० बैद्यनाथ सरस्वती के द्वारा गावों पर किए गए शोध कार्य का मुद्रित रूप है। डॉ० सरस्वती यूनेस्को प्रोफेसर रहे हैं और अपने विषय (मानवशास्त्र) के जाने माने विद्वान् भी हैं। सन् १९५० के दशक में प्रो० निर्मल कुमार बोस ने गावों के विविध पक्षों के अध्ययन की एक योजना बनाई थी। उसी के अन्तर्गत चौदह वर्षों की महत्त्वपूर्ण अवधि में डॉ० सरस्वती ने अरुणाचल प्रदेश, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप, आंध्र प्रदेश, आसाम, बिहार, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मनीपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, उड़ीसा, पंजाब, पांडीचेरी, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडू, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल के कुल ८७ गावों का अध्ययन किया। उन गाँवों के विभिन्न विशेषणों को देखते हुए उन्होंने उन्हें १६ प्रकारों में विभक्त किया - १. प्रकृतिवादी गाँव, २. कलाकारों के गाँव, ३. भिक्षु गाँव, ४. विद्वानों के गाँव, ५. महाकाव्य के गाँव, ६. तीर्थ गाँव,७. ग्रामदान गाँव, ८. स्वजनात्मक गाँव, ९. अनोखा गाँव, १०. मृदु गाँव, ११. कठोर गाँव, १२. पहला गाँव, १३. अन्तिम गाँव, १४. सीमान्त गाँव, १५. परित्यक्त गाँव, १६. व्यवस्थापित गाँव। इस शोध कार्य में गाँवों के भौतिक सांस्कृतिक तत्त्वों, हस्तकलाओं, जातियों, संगठनों, धार्मिक संगठनों, जातीय व्यवसायों तथा आधुनिक एवं सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन हुए हैं, जो इस पुस्तक के चार भाँगों या अध्यायों - मनुष्य का आवास, सोलह कलाओं के गाँव, गांधीजी के सपनों का गाँव, अस्तित्वात्मक कारुणिकतापूर्ण गाँव में प्रस्तुत है। भारतवर्ष गाँवों का देश है। इस देश की आत्मा गाँवों में देखी जा सकती है। दरअसल गाँवों के विकास में ही भारतीय जीवन का विकास निहित है। गाँव से अलग भारतीयता एक कल्पना है। इन दिनों हम भारतीय लोग गाँवों से शहर की और भाग रहें हैं जिसके कारण शहर में भीड़ बढ़ती जा रही है और गाँव वीरान होते जा रहे हैं। अपने मूलाधार से विलग होकर लोग संस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक एवं धार्मिक कठिनाइयों में डूबते जा रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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