Book Title: Sramana 2008 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 199
________________ १९४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ __चाहे मानव हो या पशु-दोनों जीवित रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। प्राण सभी को प्रिय है, किसी को भी अप्रिय नहीं है। कत्लखानों द्वारा की जा रही बर्बरता, उसके परिणाम, कत्लखानों द्वारा फैलाया जा रहा प्रदूषण आदि विषयों को लेखक ने पुस्तिका में स्पष्ट किया है। इस पुस्तिका में जितने भी आँकड़े हैं पुराने हैं, लेखक के समय के हैं तथापि दिल दहला देने वाले हैं। नये आंकड़े तो और भी अधिक खतरनाक होंगे। शाकाहार के प्रबल पक्षधर एवं प्रचारक डॉ० नेमीचंदजी जैन भले ही देह से आज इस दुनियाँ में नहीं हैं, किन्तु उनकी यह कृति उनके नाम को, काम को युग-युगों तक जीवित रखेगी। इस कृति को अगर आज के तथाकथित नेता, राष्ट्र के कर्णधार, न्यायाधीश, समाज के हितचिंतक आदि अक्षरशः पढ़ लेते हैं तो वे मांसाहार एवं कत्लखानों के कभी भी पक्षधर नहीं होते तथा आज का सर्वोच्च न्यायालय यह नहीं कहता कि पशुवध मानव का मूल अधिकार है। जिसे जीवन देना नहीं आता, उसे जीवन लेने का कोई अधिकार नहीं है। आज विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिये नित नये कत्लखाने खोले जा रहे हैं - यही स्थिति जारी रही तो कालान्तर में पशुओं का अकाल मंडराने लगेगा तथा हमारी कृषि प्रणाली एवं पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ेगा। द्रष्टव्य है, भारतीय एवं विदेशी महानायकों के विचार जो आवरण पृष्ठ पर मुद्रित हैं - . __ जवाहरलाल नेहरु ने कभी कहा था - "मैं कसाईखानों को बिल्कुल नापसंद करता हूँ। मैं जब कभी किसी बूचड़खाने के पास से गुजरता हूँ, मेरा दम घुटने लगता है - वहाँ कुत्तों का झपटना और चील-कौओं का मँडराना घृणास्पद लगता है। पशु हमारे देश के धन हैं। इनके ह्रास को मैं कदापि पसंद नहीं करता। सरकार ने लाहौर में जो कसाईखाना खोलने का निश्चय किया है, मैं इसका घोर विरोध करता हूँ। इसके विरोध में देशवासी जो भी कदम उठायेंगे, मैं उनके साथ रहूँगा।" प्रबल जन-विरोध के आगे विदेशी सरकार को भी घुटने टेकने पड़े थे तथा प्रस्तावित योजना को रद्द करना पड़ा था। - जब हम खुद मृत प्राणियों की जीति जागती कब्र हैं, तब फिर हम इस दुनियाँ में किन्हीं आदर्श स्थितियों की कल्पना कैसे कर सकते हैं? – जार्ज अल्बर्ट आइन्स्टाइन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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