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जैन जगत् : १८९
कलासम्पदा, भाषा, मंदिर और स्थापत्य पर जैन धर्म की प्राचीन, मध्यकालीन और वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डाला।
जैन धर्म के मर्मज्ञ डॉ० सागरमलजी जैन ने जैन धर्म से लुप्त हुआ एक सम्प्रदाय यापनीय संघ के बारे में बताया। इस सम्प्रदाय के करीब ६० शिलालेख पाँचवी से चौदहवीं शती तक के प्राप्त होते हैं। ये सब दक्षिण भारत से ही प्राप्त हुए हैं।
आपके विचार से भगवती आराधना, स्वयंभू का पउमचरिउ, बृहत्कथा कोष, कषायपाहुड, हरिवंशपुराण आदि यापीयसंघ के आचार्यों का योगदान है। हलसी-कर्णाटक से प्राप्त पाँचवीं शती के शिलालेखों से हमें वहाँ पर बसे हुए चार जैन संघ की विद्यमानता के उल्लेख प्राप्त होते हैं - १. निग्रंथ संघ, २. यापनीय संघ, ३. श्वेतपट्ट श्रमण संघ, ४. कुर्चक संघ। यापनीय संघ दिगम्बर परम्परा की तरह साधुओं की नग्नता को स्वीकार करता था और श्वेताम्बर परम्परा की तरह आगमशास्त्रों को मानते हुए केवलीभुक्ति और स्त्री मुक्ति को स्वीकार करता था। इस तरह यापनीय सम्प्रदाय कुछ हद तक श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं को मान्यता देता था।
संगोष्ठी में अन्य जिन विद्वानों ने भाग लिया उनके नाम हैं- डॉ० जवाहरलाल, पूर्व निदेशक, हैदराबाद म्यूजियम; डॉ० ए० एकांबरनाथन्, तमिलनाडु; समणी आगमप्रज्ञाजी, लाडनूं डॉ० पद्मजा पाटिल; टी०एन० गणपति, निदेशक, योगसिद्ध रीसर्च सेंटर, चेन्नई, प्रोफेसर धन्यकुमार, मद्रास विश्वविद्यालय; समणी रमणीय प्रज्ञाजी, लाडनूं डॉ० वीराज शाह, प्रोफेसर किरनकांत चौधरी, व्यंकटेश विश्वविद्यालय, तिरुपति, डॉ० नलिनी जोशी, पुणे विश्वविद्यालय।
__ संगोष्ठी के अंत में आचार्य प्रवर श्री हेमचंद्रसागरसूरीश्वर जी का प्रवचन हुआ। आपने कहा कि हमने आंग्ल भाषा को इतना अपना लिया है कि वह हमारे रहन-सहन का हिस्सा बन गई है। अब हमें हमारी मातृभाषा को भी इतना ही महत्त्व देना चाहिये। आचार्यप्रवर ने जैन दर्शन के विकास में आचार्य समंतभद्र के योगदान की चर्चा भी की।
अंत में डॉ० गीता मेहता, निदेशक, जैन सेंटर, सोमैया इंस्टीट्यूट, ने आगंतुक विद्वानों के प्रति अपना आभार व्यक्त किया।
समारोह के अन्त में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा गया जिसमें कवि श्री युगराज जैन द्वारा निर्देशित नृत्यनाटिका ‘जयति जिनशासनम्' प्रस्तुत की गई। यह नाटिका धर्म और समाज पर आधारित थी। समाज सुधार के उद्देश्य को लेकर चली यह नाटिका लोगों के दिल को छू गई।
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