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अष्टपाहुड एवं प्रवचनसार के परिप्रेक्ष्य में योग्य-अयोग्य साधु विवेचन
यति तथा तरुणी का आपसी वार्तालाप आज्ञाकोप, अनवस्था, मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम विराधक- इन पाँच दोषों का शरणस्थल है। साधु को आर्यिकाओं के निवास स्थल के समीप निवास नहीं करना चाहिए। ४३
बोध पाहुड में कहते हैं कि तिर्यञ्च, महिला, नपुंसक, कुशील पुरुष का संयोग, स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा तथा चोरकथा का श्रमण को निषेध है। उसका परमलक्ष्य मात्र जिनवचन का निरन्तर स्वाध्याय एवं धर्म्य तथा शुक्ल ध्यान में रत रहना ही है।" भावरहित मुनि मोक्षपथ के अयोग्य हैं, इसके फलस्वरूप अचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में श्रमण को भावशुद्धि में प्रवृत्त करने के लिए निर्देश करते हैं। महापुरुष भी इस कषाय परिणाम के कारण तद्भव मोक्षगामी होने के बाद भी सकषायी होने से मोक्ष सुख का अनुभव न कर सके। अतः श्रमण का कषाय रहित होना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में अष्टपाहुडकार ने कामदेव बाहुबलि, मुनि बाहु, द्वीपायन मुनि, अभव्यसेन मुनि का उदाहरण उद्धृत किया है। शुद्धभाव में मुनि शिवकुमार, शिवभूति मुनि के उदाहरण निर्दिष्ट हैं। सत्य ही है, भावरहित अध्ययन, मनन तथा अनुसरण का परिणाम शून्य होता है ।
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मोक्षपाहुड तो निर्वाणयोग्य उसे मानता है जो योगी देह के प्रति निरपेक्ष है, उदासीन, निर्द्वन्द्व, निर्ममत्व, निरारंभ तथा आत्मभाव में लीन है।
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जो प्रश्न करते हैं कि वर्तमान में भावलिङ्गी मुनि का अस्तित्व शंकास्पद है उनके लिए प्रत्युत्तर हेतु आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि पंचमकाल में मुनि रत्नत्रय युक्त हैं तथा इन्द्रादि पदों को भोगकर आगामी भवों में निर्वाण प्राप्त करते हैं। " किन्तु इतना निश्चित है कि वस्त्रधारी किसी भी अवस्था में मुक्ति का अधिकारी नहीं होता ।
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शोध-आलेख के आधारस्तम्भ प्रवचनसार, अष्टपाहुड तथा मूलाचार - ये तीनों ही ग्रन्थ आगम से / आप्तवचन से परिपूरित हैं। 'परम्परया आगच्छन्ति आगमाः ' अर्थात् इन ग्रन्थों के कथन सर्वज्ञ कथित तथा गणधर गुम्फित हैं, अतः मूलस्रोत एक ही होने के परिणाम स्वरूप ग्रन्थ में यथार्थ तत्त्व का विवेचन है जो सर्वत्र एक ही है। सम्पूर्ण निचोड़रूप में जो प्राप्त होता है, वह योग्य तथा अयोग्य साधु की परिभाषा मात्र शब्दों का प्रपञ्च है, भाव तो सर्वत्र एक ही है।
सन्दर्भ :
१. णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो ।
समासव्वे भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो ।। मूलाचार, ५१२.
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