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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
लक्षण किया है। तत्पश्चात् उस अन्य संघ से आये हुए के साथ दूसरे संघ के साधु तथा आचार्य किस प्रकार व्यवहार करें, इसका विवेचन है।
अष्टपाहुडकार ने वंदना के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए योग्यता की कसौटी निर्धारित की है। इसी प्रकार प्रवचनसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करना साधु का लक्षण कहा है।
योग्य शब्द की स्पष्टता हेतु योग्य देश, काल, श्रम, क्षमता तथा उपाधि का विवेचन इसमें अन्तर्निहित है।
शोधालेख का विषय मूलाचार के सामाचाराधिकार में निर्दिष्ट है, प्रवचनसार के तृतीय चारित्राधिकार में तथा अष्टपाहुड में प्रकीर्णक रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है,जिसे एकत्रित करने का लघु प्रयास यहाँ किया गया है। जिन विषयों को प्रकारान्तर से इसमें समेटा गया है वे इस प्रकार हैं :- गमन-आगमन, भिक्षा-शुद्धि, आहार ग्रहण, अन्य साधु के साथ विनय, अध्ययन, परसंघ प्रवेश, परसंघ-साधु सह व्यवहार, आर्यिका, निर्वाण, वस्त्रधारी मोक्ष के अयोग्य इत्यादि।
संक्षिप्त रूप में कहा जाये तो जिनेन्द्रदेव ने जैसा हितोपदेश प्रस्तुत किया है तदनुकूल आचरण योग्य की कोटि में है तथा तद्विपरीत आचरण अयोग्य की कोटि में
साधु का लक्षण
आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की टीका धवला में साधु को पराक्रमी, स्वाभिमानी, भद्रप्रकृति, सरल, निरीहगोचरीवृत्ति, निःसंग, तेजस्वी, गम्भीर, अकम्प, शान्तचित्त, प्रभायुक्त, सर्वबाधाजयी, अनियतवासी, निरालम्बी, निर्लेप आदि गुणों से युक्त कहा है।
इस सम्बन्ध में मूलाचार में साधुओं के दो भेद कहे हैं। जो समस्त तत्त्वों में पारङ्गत हैं अर्थात् ग्रहीतार्थ साधु हैं यह प्रथम भेद है तथा द्वितीय वे जो तत्त्वों के अल्प ज्ञाता हैं और अन्य तत्त्वविदों के साथ रहते हुए दृढ़चर्या का पालन करते हैं, वे ग्रहीताश्रित मुनि हैं।
प्रकारान्तर से इस विषय पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि ये दोनों भेद योग्य साधु के हैं अर्थात् जो समस्त तत्त्वों के निष्णात विद्वान् हैं तथा उत्कृष्ट चर्या का पालन करते हैं वे एकल विहार कर सकते हैं, ऐसा आगम निर्देश है, किन्तु जो तत्त्वों के अल्पज्ञाता हैं, किन्तु चर्या का उत्साहपूर्वक पालन करते हैं वे साधु समूह के साथ
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