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जैन साहित्य में श्रमिकों की दशा : ४९
श्रमिकों ने भवन को अपूर्ण छोड़ दिया और वहाँ से पलायित हो गये। जब राजा को इस तथ्य की जानकारी मिली तो उसने मंत्री को पदच्युत कर दिया और उसके सम्पूर्ण सम्पत्ति को जब्त कर उसे दंडित भी किया। जैन धर्म में श्रमिकों के शोषण, आश्रितों के भोजन-पानी का विच्छेद और उनकी क्षमता से अधिक कार्य लेना, श्रावक के प्रथम अहिंसा अणुव्रत का अतिचार माना गया है।
___ इस प्रकार जैन साहित्य प्राचीन भारतीय सामाजिक और आर्थिक संरचना के वृहद् एवं विस्तृत आयाम प्रस्तुत करते हैं। लेकिन सत्यता यही है कि प्राचीन भारत के सामाजिक संगठन के आधार पर ही आर्थिक-व्यवस्था का निर्माण हुआ जिसमें सवर्णों को सामाजिक और आर्थिक सोपान के शिखर पर रखा गया और वर्ण-व्यवस्था के अर्न्तगत बहुसंख्यक निम्नवर्ग के भाग्य में सदियों-सदियों के लिए घोर परिश्रम, अपर्याप्त वेतन, अपमान और भूख लिख दिया गया। अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान काल की विकासोन्मुख व्यवस्था प्राचीन कालीन जड़पूर्ण व्यवस्था से संघर्षरत है। पूँजीवाद एक स्वभाव है। जिसमें स्वाभाविक स्वेच्छाचारिता पर कठोर अंकुश न होने के फलस्वरूप भारतीय समाज भी सर्वहारा वर्ग और सम्पन्न वर्ग-विभाजन की ओर अग्रसर हो गया। सम्पन्न वर्ग द्वारा मजदूर शोषण के शिकार बने। उत्पादन और वितरण व्यवस्था समुचित न होने के कारण समाज में घोर आर्थिक विषमता व्याप्त हो गई। इस सामाजिक और आर्थिक विषमता के विरुद्ध प्राचीन काल में भी संघर्ष की स्थिति थी और आज भी है। वर्तमान नक्सलवाद का भी जन्म प्राचीन काल में ही हो चुका था। धन्ना सार्थवाह का दास अत्यधिक शोषण के खिलाफ घर से पलायित हो गया और चोरी, अपहरण जैसे कार्यों में लिप्त हो गया। यह सत्य है कि घोर आर्थिक शोषण के विरुद्ध नक्सलवादी प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव होने लगा था। ऐसा प्रतीत होता है इन्हीं शोषणों के विरुद्ध ई० पू० छठी शताब्दी में एक नवीन सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्रांति हुई जिसे हम जैन धर्म और बौद्ध धर्म के के नाम से जानते हैं। दोनों धर्मों के माध्यम से एक नवीन सामाजिक और आर्थिक संरचना का आह्वान किया गया। सदियों से चली आरही जर्जर, असमान एवं आडम्बरयुक्त व्यवस्था को चुनौती दी गयी और कर्म और 'श्रम' को इतिहास में पहली बार महत्त्व प्रदान किया गया।
जैन साहित्य में श्रमिक वर्ग के कल्याण हेतु अनेक विधान किये गये हैं। श्रमिक के आश्रितों को भोजन और उचित भृत्ति न देना अहिंसा अणुव्रत का अतिक्रमण माना जाता है। दूसरी ओर 'अस्तेय अणुव्रत' श्रमिक वर्ग को न्यायपूर्ण और उचित भाग की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। 'अपरिग्रह' धन के प्रति लोभ और उसके संग्रह को हतोत्साहित करता है तथा अतिरिक्त सम्पत्ति को जनकल्याण हेतु वितरित करने के लिए लोगों को प्रेरित करता है। नि:संदेह यह सिद्धांत आज की समाजवादी अर्थ
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