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५० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ व्यवस्था की ओर संकेत करता है और उपभोक्तावादी संस्कृति को चुनौती देता है। भगवान् महावीर ने समानता के इस शाश्वत सिद्धांत को मानव की मुक्ति के साथ जोड़ कर अल्पपरिग्रही समाज की नींव डाली। अत: कहा जा सकता है कि जैन धर्म के माध्यम से समाज में समान आर्थिक आदर्श की स्थापना की जा सकती है। सन्दर्भ :
१. पाणिनि, अष्टाध्यायी, १/२/२२, ३/१/२६. २. जैन, डॉ० कमल, प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन,
पृ०-२० ३. पिंडनियुक्ति, गाथा ३८४.
उत्तराध्ययनचूर्णि, गाथा ११८. ४. कौटिल्य, अर्थशास्त्र, २/२४/४१. ५. वही, ५/३/९१. ६. शक्रनीति- २/३९५. ७. कौटिल्य, अथर्शास्त्र, ५/३/९१ ८. जैन, डॉ० कमल, प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन,
पृ०-१५० ९. पिण्डनियुक्ति, ४०५ १०. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, १३/२०-२३ ११. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १९६८-१९७० १२. पिंडनियुक्ति, ३८४ १३. मनुस्मृति, ८/२३१ १४. व्यवहारभाष्य, ८/३१०
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