________________
६४ :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
- गान्धारी - अण्णेसह भत्तारं । (अन्वेषेथां भर्तारम् ) - पृ० -४७,वही।
अर्थात् अपने स्वामी को ढूँढ़ो। -दैव्यौ- गच्छाम मन्दभाआ। गच्छावः मन्दभागे । -पृ -४७,वही।
अर्थात् हम दोनों मन्दभागिनी जाती हैं। - धृतराष्टः - क एष भो। मम वस्त्राान्तरमाकर्षन् मार्गमादेशयति। - पृ० -४७,वही। अर्थात् अरे! यह कौन है, जो मेरे वस्त्रों को खींचता हुआ मुझे राह दिखा रहा
-दुर्जयः - ताद! अहं दुज्जओ। (तात! अहं दुर्जयः)। पृ०-४८, वही।
अर्थात् - दादाजी ! मैं दुर्जय हूँ।
इस प्रकार 'उत्सृष्टिवत' में नाट्यकार ने जिन चार पात्रों के माध्यम से प्राकृत भाषा का प्रयोग किया है, उनमें तीन स्त्री पात्र हैं और एक पात्र अबोध बालक दुर्योधन पुत्र दुर्जय है। अबोध बालक द्वारा प्राकृत भाषा का प्रयोग यह सोचने के लिए बाध्य करता है कि तत्कालीन समाज में प्राकृत भाषा जनसामान्य की भाषा थी। महाकवि भास अपने रूपकों में जनसामान्य की भाषा (प्राकृत) का प्रयोग कर, आज भी अपने यशः शरीर से अमर हैं। नाट्यकार ने अपने रूपकों में पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' एवं भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' के नियमों का भी उल्लंघन किया है। 'नाट्यशास्त्र' के अनुसार रङ्गमञ्च पर मृत्यु, युद्ध, क्रीड़ा, शयनादि का प्रदर्शन निषिद्ध है, लेकिन भास ने 'प्रतिमा' नाटक में दशरथ की मृत्यु, अभिषेक' में बालि की मृत्यु
और 'ऊरुभङ्ग' में दुर्योधन की मृत्यु को रङ्गमञ्च पर प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार नाट्यकार ने 'मध्यमव्यायोग', 'ऊरुभङ्ग' और 'बालचरित' में युद्ध की अवतारणा की है। क्रीड़ा, शयन और मृत्यु को रङ्गमञ्च पर प्रस्तुत करना भास की अपनी विशेषता है।
'प्राकृत' शब्द से हमारा तात्पर्य प्राकृत के केवल एक भेद विशेष से नहीं अपितु शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी आदि सर्वविध भेदों से है। जिस प्रकार 'हिन्दी' शब्द के प्रयोग से खड़ी बोली, ब्रज, बांगडू, कन्नौजी, बुन्देली (यहाँ तक कि राजस्थानी, अवधी, भोजपुरी) आदि का भी समावेश हो जाता है। उसी प्रकार विभिन्न जनपदों की लोकभाषा होने के कारण जनपदानुसार प्राकृत भाषा मानी जा सकती है, तो भी अन्य प्राकृतों को जानने का कोई साधन नहीं है। वैसे आभारी, आवन्ती, गौड़ी, ढक्की, शाबरी, चाण्डाली आदि अनेक नाम यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org