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भास का प्राकृत प्रयोगजन्य दर्शन : ६३
दिखते हैं। दुर्योधन का पुत्र अपने पिता को मृत देखकर शोकाकुल हो जाता है और दुर्योधन की पत्नियाँ भी करुण विलाप करती हैं।
संस्कृत साहित्य का एकमात्र दुःखान्त रूपक यही है। संस्कृत साहित्य में रूपक के सुखान्त होने की नाट्य परम्परा का यह अपवाद कहा जा सकता है। आसुरी प्रवृत्ति सम्पन्न दुर्योधन जैसे व्यक्ति की मृत्यु एक दृष्टि से सुख का कारण भी हो सकती है। यह संभावना की जा सकती है कि भास के काल में 'भरतनाट्यशास्त्र' के नियम साहित्यकारों में पूर्णतः मान्य न हो पाये हों। इस एकाङ्की में चार पात्रों गान्धारी, मालवि व पौरवि (दुर्योधन की पत्नियाँ) और दुर्जय ने प्राकृत भाषा का प्रयोग किया है।
- गान्धारी- पुत्तअ! कहिं सि ?(पुत्रक! क्वासि?), पृ०-४३, ऊरुभङ्गम्।
अर्थात् पुत्र! कहाँ हो? - दैव्यौ - महाराअ! कहिं सि? (महाराज ! क्वासि), पृ०-४३, वही। - गान्धारी-जीवाविदति मन्दभाआ। (जीवितास्मि मन्दभागा), पृ० -४३,वही। अर्थात् हाँ! मन्दभागिनी मैं अभी तक जीवित हूँ। -दैव्यौ-महाराअ! महाराअ! ( महाराज! महाराज!), पृ०, ४३, वही। - गान्धारी-महाराअ! ण दिस्सदि। (महाराज! न दृश्यते), पृ०-४४,
वही। अर्थात् महाराज! वह नहीं दिखाई पड़ रहा है।
- गान्धारी- जाद सुयोधण! देहि मे पडिवअणं ! पुत्तसदविणासदुत्थिदं समस्या-सेहि महाराआ। (जात सुयोधन ! देहि मे प्रतिवचनम् पुत्रशतविनाशदुःस्थितं समाश्वासय महाराजम्।), पृ०४५, वही।
अर्थात् पुत्र सुयोधन! मुझे उत्तर दो। सौ पुत्रों की मृत्यु से दुःखी इस अभागे महाराज को धैर्यावलम्बन दो। - गान्धारी- एत्थ जादा! ( अत्रा जाते)- पृ-४७, वही। अर्थात् पुत्रियों।
इधर आओ। - दैव्यौ-अय्ये! इमा म्ह। (आर्ये! इमे स्वः) -पृ०-४७, वही। अर्थात्
आर्ये। हम दोनों यहाँ हैं।
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