________________
भास का प्राकृत प्रयोगजन्य दर्शन
प्रयुक्त नहीं किया है। यह शब्द 'पालि' में प्रयुक्त मिलता है।" अतएव भास का काल पालि भाषा का प्रचार काल माना जा सकता है।
'करिअ' शब्द का प्रयोग पिशेल के अनुसार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' और 'मालविकाग्निमित्रम्' की दक्षिण प्रतियों में ही केवल प्राप्त होता है। सुखथंकर इस प्रयोग को विशिष्ट प्रयोग मानते हैं, क्योंकि यह अश्वघोष की तुर्फान हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त होता है। इसी प्रकार 'किस्स', 'किश्श', 'दिस्स', 'दिश्श' आदि प्रयोग भी अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलते हैं। इन प्रयोगों के आधार पर 'भास' की प्राचीनता स्वयंमेव सिद्ध है।
६७
भास की प्राकृत में 'न' और 'ण्ण' के स्थान पर 'ञ्ञ' और 'ण्ण' प्रयुक्त मिलते हैं जिससे पालि के समान ही भास की प्राकृत सिद्ध होती है। अशोक के शिलालेखों में ये रूपान्तरण उपलब्ध हैं। 'द्य' के स्थान पर 'र्य' की अपेक्षा 'य्य' का ही रूप मिलता है । 'क्ष' के स्थान पर 'च्छ' तथा 'क्ख' दोनों ही रूप मिलते हैं, जो बाद के रूपकों में भी प्राप्त होते हैं । १७
भासकृत रूपकों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा को सुखथंकर ने मूल प्राकृत से भिन्न बतलाया है, यद्यपि ऐसा प्रतीत नहीं होता । प्रिण्ट्ज का मागधी तथा अर्धमागधी का भेद उचित नहीं है। अतएव ये शौरसेनी के ही रूपान्तर हैं। भास के 'पञ्चरात्र' तथा 'बालचरित' में 'रा' का 'ल', 'स' का 'श', 'ष' में परिवर्तन द्रष्टव्य है । १८ इन शब्दों के प्रयोग के आधार पर भास की प्राचीनता सिद्ध होती ही है, साथ ही भास के काल को 'प्रथमप्राकृत (पालि) भाषा' (५०० ई० पू० से ई० सन् के प्रारम्भ तक) के प्रचार काल को मानना अत्यधिक तर्कसंगत है। चूँकि विविध प्रमाणों के आधार पर विद्वज्जन् भास को आदि नाट्यकार मानते हैं तो अश्वघोष के बाद भास की स्थिति का निर्धारण निराधार है । यद्यपि भासपूर्व नाटकों का केवल नामोल्लेख प्राप्त होता है, ग्रन्थ तो सर्वथा अनुपलब्ध है। यह विदित है कि महाकवि भास आदि नाट्यकार हैं तो पश्चात्वर्ती नाट्यकारों द्वारा भास के रूपकों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा अनुकरण करना सर्वथा युक्तियुक्त है। चूँकि विभिन्न कालखण्ड एवं भिन्न लेखनस्थल का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। इसलिए भास का समय गवेषणा की दृष्टि से ४ थी - ५वीं शती ई० पू० साधिकार निर्धारित किया जा सकता है। नाट्यकार ने उज्जयिनी के विविध स्थलों का सूक्ष्मतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है, जिसका अक्षिपात किए बिना वर्णन करना सम्भव नहीं है । इसी प्रकार कवि ने राजा प्रद्योत, उदयन और दर्शक का जो वर्णन किया है, वह बिना प्रत्यक्ष दर्शन के सम्भव नहीं हो सकता, अतएव गवेषक की दृष्टि में महाकवि भास वत्सराज उदयन के दरबारी कवि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org