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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८
पूर्व-मध्य कालीन जैन ग्रंथों में शिक्षा के तत्त्व
रवि शंकर गुप्ता*
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मनुष्य अपने ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए जिस विधि या प्रक्रिया का सहारा लेता है वह शिक्षा है। शिक्षा से व्यक्ति में आत्मविश्वास
और कार्यक्षमता का विकास होता है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही शिक्षा का स्वरूप अत्यन्त सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित था। भारतीय संस्कृति की दो परम्पराओं ब्राह्मण एवं श्रमण में शिक्षा का व्यवस्थित रूप देखने को मिलता है। जैन धर्म इसी श्रमण परम्परा की शाखा के रूप में जाना जाता है। जैन शिक्षा-पद्धति का चरम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना रहा है। व्यक्तित्व के चरम विकास की अवस्था को ही जैन धर्म में मोक्ष कहा गया है। जैन साध्वी चन्दना का कहना है कि 'शिक्षा वह है जो स्वयं को तथा दूसरों को मुक्ति दिलाये अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कराये। पूर्व-मध्यकालीन ग्रंथ आदिपुराण की दृष्टि में शिक्षा वैयक्तिक जीवन के परिष्कार का कार्य तो करती ही है, समाज को भी उन्नत बनाती है।
पूर्व-मध्यकालीन धार्मिक-सामाजिक प्रगति और उपलब्धियों का भारतीय इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान है। इस प्रगति से जैन धर्म भी अछूता नहीं रहा। लगभग ७वीं शताब्दी ई० से लेकर १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक जैन धर्म का इतिहास विशेष महत्त्व का रहा है। इस काल में जैन आचार्यों ने अपनी अमूल्य रचनाओं के द्वारा न केवल जैन परम्परा को समृद्ध किया, अपितु पूरे भारतीय साहित्य को एक अनुपम योगदान दिया। इस काल के जैन ग्रंथों में शिक्षा सम्बन्धी विवरण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। जैन ग्रन्थों में कुवलयमालाकहा, समराइच्चकहा, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रवचनसारोद्धार, सुखबोधासामाचारी, सिद्धतागमस्तव, विधिमार्गप्रपा, आदिपुराण इत्यादि विशेष उल्लेखनीय हैं।
जैन ग्रंथों में शिक्षा के विषय शिक्षार्थियों के बौद्धिक विकास पर अवलम्बित थे। पाँच वर्ष के बालक-बालिकाओं को लिपिज्ञान, अंकज्ञान एवं सामान्य भाषा विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। यह एक प्रकार से प्राथमिक शिक्षा थी। इसके बाद शास्त्रीय शिक्षा प्रारम्भ होती थी। यह शिक्षा राजकुमार, सामन्तवर्ग, श्रेष्ठी वर्ग एवं अन्य * शोध छात्र, श्री बजरंग महाविद्यालय, दादर आश्रम, सिकन्दरपुर, बलिया।
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