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उत्तरी मध्यप्रदेश में जैन धर्म : १०वीं से १३वीं शताब्दी ई० तक : ५३
मुनियों की स्तुति से होता है। शिलालेख में जैन मन्दिर के निर्माण में सहयोग करने वाले जैन श्रद्धालुओं, श्रेष्ठियों व गोष्ठिकों का परिवार सहित विवरण मिलता है। लेख में जैन मुनियों व गुरुओं, मन्दिर में पूजन संस्कार व प्रतिष्ठापना कार्य का निष्पादन करवाने वालों का भी उल्लेख हुआ है। इस शिलालेख में देवगुप्त नामक व्यक्ति को 'श्वेताम्बर कुल' का कहा गया है।
जैन धर्म से सम्बन्धित 'दिगम्बर' शब्द का उल्लेख ग्वालियर शाखा के कच्छपघात शासक महीपाल के वि०सं० ११५० (१०९३ ई०) के सास-बहू मन्दिर शिलालेख' (ग्वालियर दुर्ग) में हुआ है। इस शिलालेख को यशोदेव नामक दिगम्बर (दिगंबरार्क:) द्वारा लिखा बताया गया है। ग्वालियर दुर्ग से ही प्राप्त वि०सं० ११६१ (११०४ ई०) के एक अन्य शिलालेख' की रचना 'निर्ग्रथनाथ मुनि यशोदेव' द्वारा करने की सूचना भी प्राप्त होती है । सम्भवत: वि०सं० ११५० (१०९३ ई०) व वि०सं० १९६१ (११०४ ई०) के दोनों शिलालेखों में उल्लेखित यशोदेव एक ही व्यक्ति हैं, ऐसा कहा जा सकता है।
जैन अभिलेखों में गुरु-शिष्य परम्परा के भी उल्लेख मिलते हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में जैन धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अभिलेखों में जैन मुनियों के लिए गुरु, मुनि, महामुनि, महाचार्य, सूरि, पण्डिताचार्य आदि विरुद व्यवहृत हुए हैं। वि०सं० ११२२ (१०६५ ई०) के पचरई शान्तिनाथ मन्दिर शिलालेख में श्री (आचार्य) कुन्दकुन्द की वंशपरम्परा के देशीय नामक गण में शुभनन्दि गुरु के शिष्य आचार्य लीलचन्द्र का, वि०सं० ११४५ (१०८८ ई०) के दूबकुण्ड जैन मन्दिर शिलालेख में लाटवागटगण के गुरु देवसेन, उनके शिष्य कुलभूषण, कुलभूषण के शिष्य दुर्लभसेन सूरि, दुर्लभसेन के शिष्य शांतिसेन गुरु व उनके शिष्य विजयकीर्ति का, वि०सं० ११५२ (१०९५ ई०) के दूबकुण्ड से प्राप्त एक अन्य अभिलेख में काष्ठासंघी महाचार्य श्री देवसेन का, वि०सं० १९८२ (११२५ ई०) के चेत से प्राप्त स्तम्भ लेख में विजयसेन का तथा वि०सं० १२१० (११५३ ई०) के पचरई मंदिर भित्ति शिलालेख में देशीयगण के पण्डिताचार्य श्रुतकीर्ति, पण्डिताचार्य वीतचन्द्र, आचार्य शुभनन्दि व लीलचन्द्र सूरि, आदि का उल्लेख मिलता है।
उपरोक्त अभिलेखों के अतिरिक्त बजरंगगढ़ से प्राप्त वि०सं० १२०६ (११४९ ई०) के अर्हत् प्रतिमालेख, वि०सं० १२१५ (११५८ ई०) के पद्मप्रभ प्रतिमालेख व वि०सं० १२५० (११९३ ई०) के नेमिनाथ प्रतिमालेख तथा वि०सं० १३२९ (१२७२ ई०) के नरवर अर्हत् प्रतिमालेख व वि०सं० १३४३ (१२८६ ई०) के ग्वालियर पार्श्वनाथ प्रतिमालेख, आदि में भी प्रतिमा को प्रतिष्ठापित करवाने वाले एवं दान देने
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