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५६ :: श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/ अक्टूबर-दिसम्बर २००८
संस्कृति में जहाँ दया और करुणा का, पवित्र मानवता का इतना उच्च विकास हुआ है, वहीं मानव आज स्वार्थों और इच्छाओं का दास बना हुआ है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों से खेल रहा है। जब तक वासना और विकार के बन्धन व स्वार्थ की बेड़ियाँ नहीं टूटेंगी तब तक शांति की बात करना कोई माने नहीं रखता है। क्योंकि व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व बनता है। इस प्रकार सबके मूल में व्यक्ति ही है, अतः व्यक्ति में जब शांति का वास होगा तभी स्वभावतः विश्व में शांति व्यवस्था बनेगी।
आज विश्व जितना व्याकुल विश्वशांति के लिए है संभवतः उतना व्याकुल कभी नहीं था। पहले जीवन था, जिजीविषा थी, जीवन व्यवहार था, चारित्र था, समभाव था। आज विश्व विषमभाव में व्याप्त है, क्षणिक व्यामोह में फँसा हुआ है, ऐसी स्थिति में जब अहिंसा और शांति के घटक सत्पथ पर अग्रसर होंगे तब जाकर शांतिपूर्ण समाज की स्थापना हो सकती है।
अहिंसा का मार्ग ही है जिस पर चलकर मानवीय समस्या का शांतिपूर्ण हल ढूँढा जा सकता है। अहिंसा एक विधायक शक्ति है जिसके समक्ष बड़े से बड़ा हिंसात्मक व्यक्तित्व भी धराशायी हुआ है । अहिंसा, संयम और शांति के सम्बन्ध में आचार्य तुलसी ने कहा है- विश्वशांति और व्यक्ति की शांति दो वस्तुएँ नहीं हैं। अशांति का मूल कारण अनियंत्रित लालसा है। लालसा से, संग्रह से शोषण की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। व्यक्ति या विश्व जो भी शांति चाहता है उसे इन मूल कारणों से बचना होगा । ...... शांति के लिए ऐसे अहिंसक समाज का निर्माण अपेक्षित है, जिसमें जीवन का प्रवाह चलता रहे और आक्रमण का शोषण न हो। संकल्पपूर्वक होने वाली हिंसा मिट जाए। अहिंसा अभय है, इसलिए कायरता और कमजोरी से इसका कोई अभिप्राय नहीं । अहिंसा और कायरता का ३६ का सम्बन्ध है । "
वस्तुतः आज शांति के जितने भी प्रयत्न किये जा रहे हैं वे स्वार्थ की चादर ओढ़कर किये जा रहे हैं यही कारण है कि अब तक शांति के जितने भी प्रयास हुए हैं वे निरर्थक ही सिद्ध हुए हैं। आज अशांति अभाव जनित है और वह अभाव है प्रेम का । प्रेम के अभाव में ही एक प्राणी दूसरे प्राणी की हिंसा करता है । प्रेम के इस अभाव की पूर्ति हिंसा - प्रतिहिंसा की भावना, अर्थलोलुपता, अधिकार की लिप्सा से नहीं की जा सकती है। नैतिकता से अनैतिकता, अहिंसा से हिंसा, प्रेम से घृणा, क्षमा से क्रोध व उत्सर्ग से संघर्ष एवं मानवता से पशुता पर विजय प्राप्त की जा सकती है। प्रश्न उठता है कि व्यक्ति हिंसा किसका करता है? स्व की या पर की? सामान्यतः यह माना जाता है कि हिंसा जब भी होती है दूसरे की ही होती है। लेकिन जैन धर्म के अनुसार जब भी
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