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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८
विश्वशांति और अहिंसा : एक विश्लेषण
डॉ० मुक्तेश्वर नारायण सिंह*
मानव स्वभाव से शांतिप्रिय है। मानव अपने विकास के आदिकाल में अकेला था, वैयक्तिक सुख-दुःख की सीमा से घिरा हुआ, एक जंगली जानवर की भाँति। उसमें मानव चेतना का विकास नहीं हआ था। लेकिन एक दिन वह भी आया जब उसमें चेतना का विकास हुआ और दूसरों के विषय में भी सोचना प्रारम्भ किया। साथ ही उसमें स्वार्थ और परार्थ की भावना भी विकसित हुई। स्वार्थ ने अशांति को जन्म दिया तो परार्थ ने शान्ति को। आज स्वार्थ पराकाष्ठा पर है, फलतः समाज व राष्ट्र में अशांति व्याप्त है। आज व्यक्ति के समक्ष मात्र भोजन और वस्त्र की ही समस्या नहीं है, बल्कि भौतिक आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उनकी पूर्ति व्यक्ति अहर्निश व्यस्त रहकर भी नहीं कर पा रहा है। असन्तोष और अधिकार लिप्सा न केवल वैयक्तिक, बल्कि सामाजिक व राष्ट्रीय स्तर पर भी देखी जा रही है। संघर्ष और अशांति का ताण्डव आज वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर विद्यमान है। धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता, साहस के नाम पर झगड़ालु प्रवृत्ति, प्रामाणिकता के नाम पर आडम्बर, सत्य के नाम पर कूटनीति, सामाजिकता के नाम पर वर्गवादिता आज चारों ओर दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ तक अशांति की बात है तो आर्थिक अशांति के मूल में धन की असमानता है, तो राजनैतिक अशांति के मूल में आर्थिक अशांति और
औपनिवेशिक समस्याएँ हैं। इसी प्रकार धार्मिक अशांति के मूल में प्रतीकों का बोलबाला है। इनके अतिरिक्त और भी अशांति के कारण हैं, जैसे- व्यक्तिवाद और समाजवाद का संघर्ष, शोषक और शोषित का वर्गभेद, असंतोष की भावना, अनैतिकता, इच्छाओं की अत्यधिक व अनुचित वृद्धि आदि।
भारतीय संस्कृति वसुधैवकुटुम्बकम् की संस्कृति है। कहा भी गया हैअयं निजः परोवेति गणना लघु-चेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् ।।
वसुधैवकुटुम्बकम् के इस कलेवर को व्यक्ति ने जैसे ही उतारा कि अशांति की जागृति हुई, स्वार्थ ने पाँव फैलाया और वही मानव की नियति बन गई। भारतीय * प्राचार्य, ए०बी०एस० महाविद्यालय, लालगंज, वैशाली।
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