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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
खंड, ३७/५७); 'शिव पुराण' (३७/५७); 'वायु पुराण' (पूर्वार्ध, ३०/५०-५३); 'ब्रह्माण्ड पुराण' (पूर्व २/१४); कूर्म पुराण' (अध्याय ४९); विष्णु पुराण' (द्वितीयमांश, अध्याय १); 'वाराह पुराण' (अध्याय ७६); 'मत्स्य पुराण' (११४-५-६) आदि पुराणों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत महायोगी थे और उन्हीं के नाम पर यह देश 'भारतवर्ष कहलाया – 'येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यापदिशन्ति।। (५/४/९)। उक्त के अतिरिक्त जैन धर्म के प्रायः सभी पुराण-ग्रंथ एवं अन्य साहित्य इस तथ्य के साक्षी हैं कि ऋषभदेव के पुत्र भरत ही 'भारतवर्ष नाम के मूलाधार हैं। जैन साहित्य ऐसे तथ्योल्लेख से भरा पड़ा है। अत: यही आधार निर्धान्त है। इससे प्रकट है कि भरत जो शारीरिक बल एवं आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण थे, भारत के सम्राटों की मौक्तिक माला के सुमेरु थे। सम्राट होते हुए भी अपने संतुलित आचरण के कारण वे वैरागी कहलाते थे। वे रागी होते हुए भी वीतरागी थे, अनासक्त थे।
प्रथम चक्रवर्ती भरत के उदात्त चरित्र को लेकर पर्याप्त साहित्य-रचना हुई है। भगवज्जित सेनाचार्य कृत महापुराण से लेकर आधुनिक काल तक भरत के चरित्र पर आधारित अनेक रचनाओं का निर्माण किया गया। भरत विषयक यह साहित्य दो रूपों में है - एक तिरसठशलाका महापुरुषों से सम्बद्ध रचनाओं में और दूसरा उन पर स्वतंत्र कृतियों के रूप में। ऋषभदेव एवं बाहुबली से सम्बन्धित रचनाओं में भी भरत चरित्र वर्णित है। भरतेश्वराभ्युदय काव्य (सिद्ध्यङ्क - महाकाव्य) जैन कुमारसंभव, भरतचरित्र विषयक स्वतंत्र कृतियां हैं।
संस्कृत-हिन्दी शब्दकोशों में 'भरत' शब्द के यद्यपि कई अर्थ दिए गए हैं, किन्तु उनमें प्रसंग-प्राप्त अर्थ ही विचारापेक्ष हैं। संस्कृत के 'हलायुधकोश' में 'भरत' शब्द का सम्बद्ध अर्थ-विवेचन इस प्रकार दिया है जो मननीय है - 'भरतः पुं० (विभर्ति स्वाङ्गमिति, विभर्ति लोग निति वा। भृ + 'भृमृदृशियजीति' अत च्) नाट्य शास्त्रकृन्मुनि विशेषः, दौष्यन्तिः (शाकुन्तलेय) आदि अर्थ के बाद लिखा है। - 'ऋषभ देवात् इन्द्र दत्त जयन्त्यां कन्यायां जात शत पुत्रान्तर्गत ज्येष्ठपुत्र:२९' और यही अर्थ हमें अभिप्रेत है। 'हिन्दी विश्वकोश' (नागेन्द्र नाथ वसु) में भी लगभग ऐसा ही व्युत्पत्ति-सूत्र दिया गया है, जिसमें (उण् ३/११०) अधिक है और अर्थ लिखा है - 'ऋषभदेव के पुत्र', इसके आगे कुछ और विवरण दिया है। साथ ही 'जड़भरत' का उल्लेख कर लिखा है - 'ये लोक संग विवर्जित रहने के अभिप्राय से जड़वत् रहते थे।' जैन मतानुसार आदि तीर्थङ्कर ऋषभनाथ भगवान् के पुत्र छः खंड के अधिपति चक्रवर्ती थे। संसार से परम विरक्त रहते थे।२२ 'भारतवर्षीय प्राचीन चरित्र कोश
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