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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
स्थान और महत्त्व है, जिसे जैन परम्परा में समाही' नाम से सम्बोधित किया जाता है। इससे समाज में सहभागिता, संरक्षण व संतुलन पैदा होता है। इस समानतापूर्ण
अहिंसात्मक प्रवृत्ति से प्राणी में सुरक्षा का भाव पैदा होता है। इसमें इस तथ्य पर बल दिया गया है कि 'प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वी सम्बन्धी हो, चाहे जलगत हो, चाहे आश्रम कीट-पतंगों में हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी में रहती हो, चाहे उसका निवास मनुष्य में हो, तात्त्विक दृष्टि से उसमें कोई भेद नहीं है। १८ जैन दृष्टि का यह समाजवाद भारतीय संस्कृति के लिए गौरव की बात है। समानता के संदर्भ में दिया गया यह दृष्टिकोण जैन परम्परा में संपोष्य विकास की दृष्टि से अमूल्य है। अतः यह कहा जा सकता है कि अहिंसा सामाजिक जीवन व संपोष्य विकास की दृष्टि से एक मौलिक तत्त्व है। इस प्रकार अहिंसा केवल हिंसा न करना ही नहीं है वरन् जीने का आदर्शात्मक एवं जीवनदायी (Sustainable) आधार भी है।
जैन परम्परा में विषय त्याग का नाम ही अपरिग्रह है। इसमें लालच न करना और संतोष रखना आवश्यक है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करने से भी लिया जाता है। यह ऐसी पद्धति है जिसमें भोगवाद को बढ़ावा नहीं मिलता। इससे समाज में वैषम्यता भी जन्म नहीं लेती। लोग सामान्य जीवन जीते हुए विश्वशांति और सतत् विकास के मार्ग को अपनाते हैं, जो संपोष्य विकास की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण धारणा है। राजनीतिक आयाम
राजनीतिक व्यवस्था की व्याख्या भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, जैन पद्मपुराण आदि में देखी जा सकती है। संपोष्य विकास की दृष्टि से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि जैन परम्परा से सम्बन्धित राजनीतिज्ञ सभ्य, और सुसंस्कृत थे। वे किसी भी रूप में 'व्यक्ति व राज्य', 'व्यक्ति व समाज', और 'व्यक्ति व प्रकृति' के बीच पारस्परिक सौहार्द को मिटाकर कटुता और वैमनस्यता का वातावरण नहीं पैदा करना चाहते थे। इस युग में ऐसी शासन प्रणालियाँ प्रचलित थीं कि उसमें प्रजा सुखी और समृद्ध थी। राजपद को धारण करने वाला व्यक्ति भोगवादी, स्वार्थी और शोषणकारी नहीं था। वह न्यायप्रिय और जनप्रिय होता था। इस प्रकार संपोष्य विकास की दृष्टि से जैन युग की शासन व्यवस्था उत्कृष्ट मानी जा सकती है।
जैन परम्परा में राजतन्त्र एवं गणतन्त्र दोनों ही प्रकार की शासन प्रणालियाँ प्रचलित थीं। इन व्यवस्थाओं में राजा ही प्रमुख था, किन्तु वह प्रजा के समस्त सुखों का ध्यान रखता था। प्रजा में दुःख-अत्याचार शोषण का नाम नहीं था।
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