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जैन चिन्तन में संपोष्य विकास की अवधारणा 1:4 ४१
जिसमें मैं, तुम और वह में प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति अहिंसात्मक प्रवृत्ति में बदल जाय और सम्पूर्ण समाज व्यवस्था सुचारु रूप से गति करता रहे।
जैन परम्परा की धारणा है कि समाज संचरण के लिए इन चारों वर्णों की महती भूमिका है। कर्म के आधार पर जहाँ ब्राह्मण वेदविद यज्ञार्थी, ज्योतिषांग विद्या के ज्ञाता, और धर्मशास्त्रों के पारगामी, स्वात्मा और दूसरों की आत्मा का उद्धार करने वाला, सर्वकामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा पुण्य क्षेत्र आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है और उसके कार्यों को निर्धारित किया गया है, १४ वहीं क्षत्रिय का स्थान
महत्त्वपूर्ण नहीं है। समाज, राज्य अथवा प्रजा पर संकट आने पर रक्षण का कार्य इन्हीं के द्वारा सम्पन्न होता है। १५ वर्ण-व्यवस्था की तीसरी कड़ी में वैश्य का अपना अलग एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि वैश्य वर्ण का कार्य था धन-सम्पत्ति अर्जित करना और प्रजा का पालन-पोषण करना । शूद्र जिसे सामाजिक व्यवस्था की नींव कहा जाता है; को जैन परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उत्तराध्ययनसूत्र में एक जगह यह प्रसंग आता है कि शूद्र जाति में उत्पन्न हुए लोग भी ज्ञानार्जन करके गुणी और जितेन्द्रिय बन गए। अर्थात् वे ब्राह्मण की कोटि में पहुँच गए। इस प्रकार जैन परम्परा में वर्णित वर्ण-व्यवस्था संपोषी मानी जा सकती है।
संपोष्य समाज के लिए पारिवारिक जीवन व उसकी संपोष्यता का अपना अलग महत्त्व है। जैन परम्परा में पारिवारिक जीवन का आधार प्रेम व पारस्परिक सद्भाव माना जाता है। इस काल में परिवार का ढाँचा चाहे जो रहा हो, लेकिन इतना स्पष्ट है कि लोगों में आपसी समझ विकसित थी। कोई किसी के प्रति दुर्व्यवहार नहीं रखता और सुख-दुःख में सदैव सामूहिक उपस्थिति होती थी। आज जहाँ भोगवादी विकास ने मनुष्य को एक आयामी बनाकर उसके पारिवारिक और सामाजिक अनुबन्धों को ढीला किया है वहीं उसके मूल्यों का ह्रास भी हुआ है । इस दृष्टि से जैन परम्परा की यह व्यवस्था संपोष्य विकास की दृष्टि से उपयोगी मानी जा सकती है।
संपोष्य विकास के लिए समाज-पुरुष की आवश्यकता होती है। यह समाजपुरुष कैसा हो? उसके क्या कर्तव्य हों? आदि का निर्धारण जैन परम्परा में देखने को मिलता है। जैन धारणा के अनुसर वह समाजपुरुष 'भिक्षु' है। उसका कार्य नैतिक अथवा पुण्य है । वह कभी भी ऐसा कर्म नहीं कर सकता जिससे उसे सर्वथा दुःख का सामना करना पड़े। १७
समाज में समानता हिंसा और द्वेष से संभव नहीं है। यह तो करुणा, प्रेम, दया और अहिंसा से ही संभव है। अहिंसा के विभिन्न नामों में समता का अपना अलग
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