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जैन चिन्तन में संपोष्य विकास की अवधारणा 4. ३९
जिससे समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसका समुचित लाभ मिल सके। अंतिम व्यक्ति का विकास करना ही इसका साध्य है। इस साध्य की प्राप्ति देश और समाज में शान्ति के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। शांति द्रोह का अभाव है। यह अहिंसा का ही एक रूप है। अर्थात् अहिंसा के साठ नामों में से एक। इसके माध्यम से समाज में सुख सम्पत्ति व सुरक्षा प्राप्त की जा सकती है। सुरक्षा चाहे पर्यावरण की हो; चाहे पशु- -पक्षियों की हो; चाहे नैतिकता अथवा मूल्यों की हो; चाहे व्यक्ति व अधिकारों व स्वतन्त्रता की हो; चाहे उसके स्वयं के अस्तित्व की हो, अहिंसा का विचार सभी समस्याओं के निराकरण के लिए अचूक साधन है। विकास के प्रत्येक आयामों के संदर्भ में अहिंसा प्राणत्व है। इसे आधार बनाकर जैन चिन्तन- परम्परा में संपोष्य विकास के सामाजिक, प्राकृतिक, राजनीति आर्थिक आयामों को स्पष्ट किया जा सकता है।
प्राकृतिक आयाम
पोष्य विकास के प्राकृतिक आयाम का सम्बन्ध भौतिक पर्यावरण से है, जिसमें वायु, जल, पृथ्वी, पशु-पक्षी, वनस्पतियों आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ये सभी प्रकृति के अनमोल उपहार हैं। इन्हीं से प्रकृति स्थलमण्डल, जलमण्डल, और वायुमण्डल पर अपना अंकुश रखती है। जैन परम्परा के अनुसार प्रकृति की इन वस्तुओं का उपयोग त्याग के साथ किया जाना चाहिए, क्योंकि ये मानवीय जीवन के आधार हैं। जैन परम्परा में प्रकृति संरक्षण और संपोषी विकास के लिए 'परिवेश संरक्षण के सिद्धान्त' को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार परिवेश- संरक्षण के लिए पशु-पक्षियों व वनस्पतियों व जीवों को पीड़ित करना असत् कार्य है। अतः उससे बचना ही श्रेयस्कर है। इस दृष्टि से जैन परम्परा में वर्णित परिवेश संरक्षण सिद्धान्त' प्रकृति संरक्षण के लिए एक ठोस आधार है।
जैन परम्परा में प्रकृति संरक्षण के लिए अहिंसा के सिद्धान्त की विशद् व्याख्या की गयी है। उसके त्रस एवं स्थावर जीवों को किसी भी रूप और परिस्थिति में दुःखत न करना ही अहिंसा है।' उत्तराध्ययन के एक सूत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि जो प्राणवध (वह चाहे पशु-पक्षी हों अथवा वनस्पति) का अनुमोदन करते हैं वे सभी दुःख भोगते हैं।' इस सूत्र के अनुसार जो भी व्यक्ति प्रकृति के संवाहक तत्त्वों, यथा- पशु-पक्षी, पेड़ जल, वायु, पर्वत, धरती आदि के शोषण की योजना बनाते हैं, अर्थात् अपनी स्वार्थपूर्ति, भौतिक उन्नति, आर्थिक विकास के लिए, प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हैं वे सदैव समस्या ग्रस्त रहते हैं। अत: जैन परम्परा में संपोष्य
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