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: श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
गए थे। ऋषभदेव ने भरत को हिमवान (हिमालय) का दक्षिण देश (क्षेत्र) शासन के लिए दिया था। वस्तुतः ऋषभ परमहंस थे। वे न केवल जैन समाज के ही, अपितु सम्पूर्ण आर्य जाति के उपास्य देव हैं। उनका जीवन ही स्वाभाविक धर्म का प्रवर्तक है। उनके द्वारा प्रतिपादित और आचरित प्रवृत्ति धर्म ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन का मूलाधार है और यही अनुकरणीय है। जैन समाज में एकान्तिक निवृत्ति (विकृत निवृत्ति धर्म) की स्थिति बाद का प्रभाव है।
धर्म-प्रवर्तक, आदिजिन ऋषभदेव के सुपुत्र एवं उत्तराधिकारी अयोध्या नरेश भरत प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे। वे विनीत, उदार, क्षत्रिय गुणोपपेत तथा सर्वहितचिंतक थे। उन्होंने अद्वितीय सुंदरी कन्या पांचजनी (विश्व रूपात्मजा पंचजना) के साथ विवाह किया था।१२ उनके बड़े पुत्र का नाम सुमति था। इसी को राज्य देकर भरत ने भी संन्यास ले लिया था।
भरत ने षट्खंड पृथ्वी को जीता और समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी के सम्राट बने। अपनी दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में उनका अपने भाई बाहुबली से भी संघर्ष हुआ। प्रतापी बाहुबली के महत् त्याग तथा भरत की विनम्रता से संघर्ष की स्थिति समाप्त हुई। बाहुबली दृढ़ तपस्वी और मोक्षगामी महासत्व थे।" अपने प्रेरक व्यक्तित्व के कारण उन्हें जैन पुराण-पुरुषों में अद्वितीय एवं अविस्मरणीय स्थान प्राप्त है। उनका स्थान बहुत ऊँचा है।
भरत चक्रवर्ती५ लोक-कल्याण की चिन्ता में सदा मग्न रहते हुए मानवता को सुदृढ़ करने में लगे रहते थे। प्रजा की चिन्ता उनकी अपनी चिन्ता बन गई थी। अत्यन्त वात्सल्य भाव से उन्होंने प्रजा का पालन-पोषण किया। वे सच्चे अर्थों में प्रजापालक थे। महान् वीर्यवान, धर्मज्ञ, सत्यवक्ता, दृढव्रती, शस्त्र एवं शास्त्रों के ज्ञाता, निग्रहअनुग्रह में समर्थ तथा सम्पूर्ण प्राणियों के हितैषी थे। वे वैभव-सम्पदा होते हुए भी वैरागी थे। उनका मन संसार से विरक्त था। उन्होंने एक साथ राग और विराग, भोग और योग, जगत् और मोक्ष का उत्कृष्ट आदर्श उपस्थित किया। अन्त में दीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्य ज्ञान हो गया।६ वास्तव में वे अद्वितीय थे। उन्हीं के नाम से यह देश 'अजनामवर्ष के स्थान पर 'भारतवर्ष' कहलाया।
ऋषभ-पुत्र भरत का वर्णन ऐसे तो जैन परम्परा तथा ब्राह्मण परम्परा- दोनों में मिलता है, किन्तु दोनों परम्पराओं में उनके जीवन का चित्रण अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार अलग-अलग रीति से किया गया है। इसी कारण, जैन धर्म ग्रंथों तथा ब्राह्मणीय धर्मग्रंथों में वर्णित उनके जीवन-चरित्रों में बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ तथ्यात्मक अन्तर भी मिलते हैं। जैन परम्परा में उनका वर्णन शलाकापुरुषों के अन्तर्गत
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