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धुतंगनिद्देस में प्रयुक्त अर्थघटन के उपकरण
आकार या रूप ही अर्थ निर्णय या व्याख्या है।" समस्त प्रकार के अवबोध व्याख्या हैं और सभी व्याख्याएँ भाषा के माध्यम से ही घटित होती हैं। इस प्रकार विचार एवं कथन के मध्य सामान्य सम्बन्ध है जिसकी रहस्यात्मक अंतरंगता उस माध्यम से जुड़ी है जिसमें कथन ( speech) छिपे तौर पर विचारों में समाहित है। अतः अर्थनिरूपण या व्याख्या कोई शिक्षाशास्त्रीय चीज नहीं वरन् स्वयं अवबोध की प्रक्रिया है जो मात्र उसे ही अनुभूत होती है जिसके लिए व्याख्या की जा रही है वरन् यह स्वयं व्याख्याकार को भी भाषाई व्याख्या में सुस्पष्टता का बोध कराती है। यह प्रक्रिया अर्थ का स्पष्टीकरण है। दूसरे शब्दों में जिस रूप में किसी सूत्र या कथन का अवबोध संभव हो पाता है उसे व्याख्या कहते हैं। गैडेमर के अनुसार 'किसी कथन का अवबोध और उसकी व्याख्या एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।'' अर्थघटन अवबोध की प्रक्रिया है जिसमें कथन के अन्तर्निहित भाव तथा भाषायी प्रश्नों के समाधान का प्रयास किया जाता है।
अर्थघटन की उपरोक्त विवेचना पाश्चात्य दर्शन के सन्दर्भ में Hermeneutics की प्रकृति से परिचित कराता है। दूसरी बात यह है कि Hermeneutics अंग्रेजी से उधार लिया शब्द है। इससे यह भाव प्रजनित होता है कि इस प्रकार की गवेषणा मात्र पाश्चात्य दर्शन में ही संभव है। साथ ही यहाँ एक सन्देह भी उभरता है कि Hermeneutics के सिद्धान्तों का प्रयोग भारतीय दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में संभव है या नहीं। इस संदर्भ में जब हम भारतीय दार्शनिक वाङ्मय पर अपनी दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि यहाँ भी पाश्चात्य परम्परा के सामानान्तर अर्थघटन के विचार उपलब्ध हैं। लेकिन यहाँ इसकी विवेचना एवं व्याख्या सम्यक् रूप से नहीं हो पायी है। इस क्रम में प्रो० टी० आर० वी० मूर्ति की सुदृढ़ मान्यता है कि 'दर्शन को भाषा की समीक्षा के रूप में पुनर्परिभाषित किया जा सकता है।' हम 'क्या जान सकते हैं?' की समस्या 'हम क्या कह सकते हैं?' के प्रश्न से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। यह विचार ही है जो शब्दों में व्यक्त होता है, समझा जाता है, संवादित होता है एवं उसकी समीक्षा की जाती है। भाषा कोई आकस्मिक एवं त्यागने योग्य वस्त्र नहीं है जिसे जब चाहें पहन लें तथा जब चाहें तो उतार दें। भाषा विचारों के साथ विकसित होती है, या फिर विचार इसके साथ विकसित होता है। अपने अन्तिम विश्लेषण में ये दोनों तादात्मक सिद्ध होते हैं। इस तथ्य का कथन वाक्यपदीय के उस सूत्र में दृष्टिगत होता है जहाँ यह कहा गया है कि शब्द व्यापार के बिना संज्ञान संभव नहीं है
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