________________
२२ :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
के ज्ञान शब्दों से प्रकाशित होते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे पास पूर्ण विकसित विचार हैं और उसकी अभिव्यक्ति हेतु शब्द नहीं हैं, या फिर हमारे पास मात्र शब्द हैं और उसके प्रयोग के लिए हम विचार ढूढ़ते हों। वस्तुतः शब्द और विचार साथ-साथ विकसित होते हैं। भर्तृहरि का यह पूर्ण स्थापित सिद्धान्त है कि 'चेतना और वाक् के मध्य तादात्म्य है।' अर्थघटन में हम वाक् में अन्तर्निहित चेतना या शब्दों में छिपे विचार को बाहर निकाल कर प्रकाशित करने का प्रयास करते हैं। इस तरह प्राचीन शास्त्रों के वचनों के अर्थों को जो हमारे लिए अजनबी तथा दुरूह हो गये हैं, को सामने लाते हैं। गैडेमर की भी यही मान्यता है कि 'अर्थघटन शास्त्रों के अजनबी तथा दुरूह कथन जो आज असम्बद्ध तथा असंगत हो चुके हैं उनका अवबोध प्राप्त करना तथा उन्हें भाषा में व्यक्त करने का सिद्धान्त एवं व्यवहार है। इस कार्य के सम्पादन में कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना पड़ता है जिसके आधार पर हम शास्त्रोक्त वचनों का अर्थ सम्यक् ढंग से निष्पन्न करने में समर्थ हो पाते हैं। अर्थ-निरूपण के क्रम में जिन विधियों या उपायों का प्रयोग किया जाता है उन्हें अर्थघटन के उपकरण कहते हैं। भगवान् बुद्ध के कथनों को वर्तमान समस्यामूलक समाज के कल्याणार्थ प्रयुक्त करने हेतु वर्तमान के आलोक में उनका अर्थ-निरूपण आवश्यक है। अतः इस दृष्टि से अर्थघटन की उपादेयता और भी बढ़ जाती है।
वर्तमान आलेख का उद्देश्य आचार्य बुद्धघोष द्वारा रचित विसुद्धिमग्गो के धुतंगनिद्देस में प्रयुक्त अर्थघटन के उपकरणों की संक्षिप्त विवेचना है। इस क्रम में यह स्पष्ट करना अपेक्षित प्रतीत होता है कि विसुद्धिमग्ग में वस्तुत: बौद्ध योग का विवेचन हुआ है और इस क्रम में बौद्ध वचनों का अर्थ-निरूपण किया गया है। संयुक्तनिकाय की दो गाथाओं के अर्थ-निरूपण के क्रम में इस ग्रन्थ का प्रणयन हुआ है। वे दो गाथाएँ निम्नलिखित हैं -
'अन्तो जटा बहि जटा, जटाय जटिता पजा। तं तं, गोतम, पुच्छामि, को इमं विजटये जटं ति।।' 'सीले पतिद्वाय नरो सपञों, चित्तं पक्षं च भावयं। आतापी निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जटं,' ति।।'
वस्तुतः दूसरी गाथा की व्याख्या विसुद्धिमग्ग में दृष्टिगत होती है। इस प्रकार अर्थघटन की दृष्टि से विसुद्धिमग्ग बौद्ध परम्परा की उत्कृष्ट रचना है। इसमें बुद्ध वचन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org