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१४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
लिए आना चाहकर भी यहाँ आने में समर्थ नहीं हैं। क्योंकि नारकीय जीव चार कारणों से मनुष्यलोक में नहीं आ सकते। सर्वप्रथम तो उनमें नरक से निकल कर मनुष्य लोक में आने की सामर्थ्य ही नहीं होती। दूसरे नरकपाल उन्हें नरक से बाहर निकलने की अनुमति नहीं देते। तीसरे नरक सम्बन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने से वे वहां से नहीं निकल पाते। चौथे उनका नरक सम्बन्धी आयुष्य कर्म जब तक क्षीण नहीं होता तब तक वे वहाँ से नहीं आ सकते। अतः तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध न दे पाने के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर एक ही हैं, अपितु यह मान्यता रखो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है । " केशिकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क किया।
श्रमण ! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थीं। आप लोगों के मत के अनुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होंगी। मैं अपनी दादी का अत्यन्त प्रिय व मनोज्ञ था, अतः उन्हें तो मुझे आकर यह बताना चाहिए कि, हे पौत्र ! अपने पुण्य कर्मों के कारण मैं स्वर्ग
उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे समान धार्मिक जीवन बिताओ, जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन कर स्वर्ग में उत्पन्न होओ। क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे ऐसा प्रतिबोध नहीं दिया, अतः मैं यही मानता हूँ कि जीवन और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं । १५
राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत कियाहे राजन् ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो, उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि, हे स्वामिन्! यहाँ आओ ! कुछ समय के लिए यहाँ बैठो तो क्या तुम उस पुरुष की बात को स्वीकार करोगे? नहीं! क्योंकि निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं चाहोगे ।" इसी प्रकार हे राजन् ! देवलोक में उत्पन्न देव वहाँ के दिव्य काम भागों में इतने मूर्च्छित और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्य लोक में आने की इच्छा नहीं करते। दूसरे देवलोक सम्बन्धी दिव्य भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है, अतः वे मनुष्य लोक में नहीं आ पाते । पुनः मनुष्य लोक इतना दुर्गन्धित और अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण देव मनुष्य लोक में आना नहीं चाहते हैं। अत: तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने पर यह श्रद्धा रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं।
अब राजा पएसी ने केशिकुमार श्रमण के समक्ष एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया। राजा ने कहा कि मैंने एक चोर को जीवित ही लोहे की कुम्भी में बन्द करवा कर उसे अच्छी तरह से लाह से उसका मुख ढक दिया फिर उस पर गरम लोहे और रांगे से
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