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१६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
१३. भगवान महावीर ने अगले ४२००० या उससे अधिक वर्षों तक किसी के मुक्त न होने का संकेत दिया है। महात्मा ईसा ने भी साढ़े तीन वर्ष (४२ माह; १ माह = १००० वर्ष) तक स्वर्ग के द्वार के बंद होने अथवा किसी के मुक्त न होने की बात कही है।
१४. दोनों ने ही परम्परागत पुरोहितवाद का विरोध किया है।
१५. मुक्ति के विज्ञान का उपदेश दोनों ही महात्माओं ने दिया है। उनकी मान्यता है कि संसार-प्रेम और मुक्ति-प्राप्ति में विलोम सम्बन्ध है।
१६. भगवान महावीर ने दो प्रकार के प्राणी माने हैं : अ. भव्य- जिसमें मुक्त होने की क्षमता है। ब. अभव्य- जिसमें मुक्ति की क्षमता नहीं है।
ईसा भी कहते हैं कि स्वर्ग के राज्य का द्वार बहुत ही संकीर्ण है। उसमें चुने हुए (भव्य) जीव ही प्रवेश कर सकते हैं।
१७. महावीर सभी आत्माओं में समान क्षमता मानते हैं और सभी में ईश्वर होने की क्षमता मानते हैं। इसके विपर्यास में, ईसा ‘सभी आत्मायें समान' हैं मानते हैं, साथ ही ईश्वर तुम्हारे अंदर ही है' मानकर भी सभी में ईश्वरत्व को प्राप्त करने की क्षमता नहीं मानते हैं लेकिन ईश्वर द्वारा पाप-मुक्ति के बाद ईश्वर के बगल में बैठा देते हैं। यह मुक्ति ईश्वर के अनुग्रह से ही मिलती है। इसके विपर्यास में, जैनों का ईश्वरत्व ज्ञान ध्यान, साधना और तपस्या से कर्म-मल या दु:ख दूर कर ही पाया जा सकता है। . १८. दोनों ही 'ॐ' एवं 'ओमेन' (तथास्तु) की पवित्रता व सामर्थ्य स्वीकार करते हैं।
१९. दोनों के उपदेश सामान्य जीवन में दृष्टिगोचर उदाहरणों से भरपूर होते थे। ईसा के इन उदाहरणों का अनेक पुस्तकों में उल्लेख है, पर महावीर के उदाहरणों का संकलन अभी नहीं हुआ है।
२०. महावीर ने पांच मूढ़ताओं - देव, पाखंड, तीर्थ, जातिबंधन और क्रियाकांड को छोड़ने का उपदेश दिया है। महात्मा ईसा भी इसे मात्र संकेत के रूप में व्यक्त करते हैं। उपदेशों में विभिन्नता :
दोनों महापुरुषों के उपदेशों में उपरोक्त समानताओं के बावजूद उनके अनेक मौलिक उपदेशों में भिन्नता पाई जाती है तथा कुछ अपूर्णतायें भी हैं। इनका संक्षेपण निम्न है -