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साहित्य सत्कार : १६१
पंचम प्रकाश में वर्षकृत्य तथा अन्तिम और षष्ठ प्रकाश में जन्मकृत्य का दृष्टांतपूर्वक विवेचना किया गया है।
कहने का तात्पर्य है कि जो भी भावक इस ग्रन्थ में कहे गये ६ प्रकाशों का सम्यक्रूपेण पालन करेगा वह वर्तमान में तो सुख पायेगा ही और परलोक में भी मुक्ति को प्राप्त करेगा। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ उन श्रावकों के लिये विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगा जो सांसारिक कृत्यों को करते हुए भी मुक्ति के आकांक्षी हैं। ऐसे उपासकों के लिये श्रावक धर्म की विधि एक ही पुस्तक में प्राप्त होना सहज उत्कंठा का विषय है। निश्चित ही पाठकगण इस पुस्तक का लाभ उठा सकेंगे।
ग्रन्थ के भाषांतर का कार्य जैनामृत समिति, उदयपुर द्वारा विक्रम सं० १६८७ में किया गया था। इसके अतिरिक्त इसमें जो भी भाषा की त्रुटि रह गयी थी उसमें भाषिक सुधार कर श्री गुरु रामचन्द्र प्रकाशन समिति, भीनमाल (राज.) ने छपवाया है। इस कार्य के लिये वे अवश्य ही बधाई के पात्र हैं। ग्रन्थ की बाह्याकृति आकर्षक व सुसज्जित तथा मुद्रण स्पष्ट है।
डॉ० शारदा सिंह ४. प्रस्थानरत्नाकरशब्दखण्डीया (विद्वत् परिचर्चा), प्रकाशक- श्री बल्लभाचार्य ट्रस्ट, कंसारा बाजार, माण्डवी, जिलहा-कच्छ, गुजरात - ३७०४५६, संस्करणप्रथम (वि०सं० २०५६), पृ०- १४+६०१, आकार - डिमाई, मूल्य- २००/
गोस्वामी श्री पुरुषोत्तमचरण विरचित 'प्रस्थानरत्नाकर' वल्लभवेदान्त दर्शन का उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में 'प्रस्थानरत्नाकर' के शब्द खण्ड के विषयों पर की गयी विचारगोष्ठी का संकलन है। कहा जाता है जो स्थान न्याय दर्शन में उदयन का, मीमांसा दर्शन में पार्थसारथी मिश्र और शालिकनाथ मिश्र का है, वही स्थान वल्लभ वेदान्त में गोस्वामी श्री पुरुषोत्तमचरण जी का है। लेखक ने इस ग्रन्थ में ज्ञान को ब्रह्म स्वरूप माना है। ईश्वर जब इस संसार की सृष्टि करने की इच्छा करता है तो ज्ञान का अनेक प्रकार से आविर्भाव होता है। इस पुस्तक में चार दिवसीय संगोष्ठी में देश के लब्धप्रतिष्ठित विद्वज्जनों द्वारा किए गये पत्र वाचन तथा उस पर हुई चर्चा के साथ २२ शोध-पत्रों का संकलन है। जिसमें Dr. S.S. Antarkar पठित "Autonomy and supremacy of the Vedic testimony : Prasthānaratanākara View", Prof. S.R. Bhatt yfon "Meaning of Veda and vedaprāmānya according to Prasthānaratanakara, Dr. B.K. Dalai पठित "Jain concept of Sabda Pramana", Prof V.N. Jha पठित "Vallabha's philosophy of language", के