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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
गाड़ीवान वस्तुओं को निश्चित समय पर सुरक्षित रूप से पहुँचाता था। राजा ने प्रसन्न होकर उसका (गाड़ीवान) शुल्क माफ कर दिया। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि शकट रखने पर राज्य को शुल्क देना पड़ता था। रथ तिनिश पेड़ की लकड़ी से बनता था। राजाओं के रथ इतने सुन्दर होते थे कि इनकी गणना रत्नों में की जाती थी। रथों में विभिन्न प्रकार के मणिरत्न जड़े जाते थे। रथ को बैल और घोड़े खींचते थे। घोड़ों
और बैलों को सुन्दर आभूषणों से सुसज्जित किया जाता था। युद्ध में भी रथों का प्रयोग होता था। दूसरी सुखद साधन शिविका थी, जिसे चार आठ या सोलह व्यक्ति मिलकर उठाते थे। इसमें सुखद आसन व शयन की व्यवस्था रहती थी। प्रायः राजा, श्रेष्ठि, सार्थवाह और व्यापारी लोग ही इसका उपयोग करते थे। ‘ज्ञाताधर्मकथांग' से ज्ञात होता है कि मेधकुमार की दीक्षा के समय सौ पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका मंगवाई गई थी। इससे स्पष्ट है कि यह बहुत बड़ी और भव्य शिविका रही होगी।
भार वहन करने वाली गाड़ी को शकट या सग्गड़ कहा जाता था। इनमें बैल जोते जाते थे। 'वृहत्कल्पभाष्य' से स्पष्ट ज्ञात होता है कि आभीर शकटों में घी के घड़े रखकर नगरों में बेचने के लिए जाते थे।
मार्ग रहित प्रदेशों अथवा घाट रहित नदियों में यातायात हेतु हाथियों का विशेष उपयोग किया जाता था। मुख्यतया राजा की सवारी के लिये और युद्ध हेतु हाथियों का प्रयोग होता था। हाथियों को आभूषण, घण्टियाँ और झूलें पहनाकर ध्वजा, पताका और अस्त्रों-शस्त्रों से मण्डित किया जाता था। राजा श्रेणिक और कुणिक हाथी पर सवार होकर भगवान महावीर के दर्शन, नगर विहार और वन विहार के लिये जाया करते थे।११ आवागमन के लिये घोड़ों का भी बहुविध उपयोग होता था, घोड़ों का स्वतंत्र साधन के अतिरिक्त रथों में भी उपयोग किया जाता था। उन्हें आभूषण और सुनहरी जीनो से सुसज्जित किया जाता था।१२
नाव, पोत और जलयान जलमार्ग से व्यापार के साधन थे। 'निशीथचूर्णि' में चार प्रकार के जलयानों का उल्लेख है, जिनमें से एक समुद्री मार्ग के उपयुक्त माना जाता था और शेष तीन नदियों और झीलों में चलते थे।१३ समुद्र में चलने वाले जलयान को 'पोत' और 'प्रवहन' कहा जाता था।१४ 'निशीथचूर्णि' में उन्हें 'यानपट्ट' कहा गया है।५ 'आचारांग' में नदियों में चलने वाली तीन प्रकार की नौकाओंऊर्ध्वगामिनी, अधोगामनी और तिर्यग्गामिनी का उल्लेख है। प्रवाह के प्रतिकूल जाने वाली नाव को 'ऊर्ध्वगामिनी', प्रवाह के अनुकूल जाने वाली नाव का अधोगामिनी और एक किनारे से दूसरे किनारे तिरछे जाने वाली को तिर्यग्गामिनी कहा जाता था।२६ जलपोत लकड़ी के तख्तों से निर्मित होते थे। इनमें पतवार, रज्जु, और डंडे लगे रहते थे। समुद्र में चलने वाले जलपोत में कपड़े के पाल लगे रहते थे जिनकी