Book Title: Sramana 2007 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 158
________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्राङ्गण में : १५१ पार्श्वनाथ विद्यापीठ में "वैदिक धर्म की निरंतरता" विषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न वाराणसी। १०-१२ मार्च, २००७, राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के संयुक्त तत्त्वावधान में "वैदिक धर्म की निरंतरता विषयक एक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी में किया गया जिसमें देश के कोने-कोने से आये लगभग ८५ विद्वानों ने भाग लिया। संगोष्ठी का उद्घाटन महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ के कुलपति प्रो० सुरेन्द्र सिंह कुशवाहा द्वारा दीप प्रज्वलित कर किया गया। उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुये मुख्य अतिथि प्रो० कुशवाहा ने कहा कि वैदिक धर्म का मूल दर्शन भारतीय संस्कृति की रक्षा और जनकल्याण की भावना है। जनकल्याण की भावना जहाँ निहित होती है उसमें स्थायित्व होता है, वैसे धर्म की सत्ता कभी नष्ट नहीं हो सकती। विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो० अंगने लाल ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि वैदिक और श्रमण संस्कृति दोनों ने एकदूसरे को प्रभावित किया है। संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुये मूर्धन्य वैदिक विद्वान् प्रो० हृदयरंजन शर्मा ने कहा कि वेद ज्ञान-विज्ञान का भण्डार है। वेद शब्द स्वयं ही अपने वैज्ञानिक स्वरूप को दर्शाता है। वेद नित्य, पूर्ण एवं ईश्वरीय ज्ञान है इसमें सम्पूर्ण विश्व का कल्याण निहित है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जो वैदिक ग्रन्थ हमारे यहां नष्ट हो चुके हैं वे आज भी अमेरिका जैसे कुछेक विकसित राष्ट्र के पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं। हमसे ज्यादा विदेश के लोग वेद की वैज्ञानिकता को महत्त्व देते हैं। संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रो० जे० पी० सिंह ने कहा कि भारतीय संस्कृति एवं वैदिक धर्म पर काफी आक्रमण हुआ। पाश्चात्य संस्कृति द्वारा इसे तोड़ने एवं बदलने की काफी कोशिशें की गयीं, किन्तु इसके बाद भी वैदिक धर्म की निरन्तरता आज भी बरकरार है। प्रो० पुरुषोत्तम सिंह ने भी अपने विचार व्यक्त किये। उद्घाटन सत्र के बाद कई विद्वानों ने अपने शोध पत्र भी पढ़े। पटना से आयी हुईं डॉ० मिथिलेश कुमारी मिश्र ने कहा कि वैदिक धर्म हमेशा ही जाति, धर्म, क्षेत्र, ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा आदि इन सभी बुराईयों से ऊपर उठकर समानता, एकता सद्भावना का उपदेश देता रहा है। डॉ० अशोक कुमार सिंह, डॉ० इन्द्र बहादुर सिंह, प्रो० सीताराम दूबे, प्रो० माहेश्वरी प्रसाद चौबे आदि ने भी अपने शोध पत्र पढ़े एवं विचार व्यक्त किये। संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रो० सीताराम दूबे, प्रो० कमलेशदत्त त्रिपाठी और प्रो० पुरुषोत्तम सिंह की अध्यक्षता में तीन सत्रों में लगभग ५० शोध-पत्रों का वाचन

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