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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ जनवरी-मार्च २००७
साहित्य सत्कार
पुस्तक समीक्षा
१. आचार दिनकर - तृतीय खण्ड, प्रतिष्ठा, शान्तिककर्म, पौष्टिक कर्म एवं बलिविधान, लेखक - आचार्य वर्धमानसूरि, अनुवादक-साध्वी मोक्षरत्ना जी, सम्पा०- प्रो० सागरमल जैन, प्रका० - प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर व अ०भा० खरतरगच्छ महासंघ, मुम्बई। राजापुर (म०प्र०) पृष्ठ - २३०, प्रथम संस्करण - फरवरी - २००७, मूल्य - ८० रूपये, साइज - डिमाई।
'आचार दिनकर' नामक इस ग्रन्थ के रचयिता वर्धमानसूरि का जन्म रूद्रपल्ली शाखा के प्रभाव क्षेत्र में कहीं हुआ होना चाहिए। पंजाब में रचित होने के कारण इसका क्षेत्र पंजाब तथा हरियाणा ही रहा होगा, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।
___ 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ संस्कृत व प्राकृत भाषा में है। यह ग्रन्थ अपनी मूल भाषा में पहले भी प्रकाशित हुआ था, किन्तु पाठकों के हृदय में अपना स्थान बना पाने में असफल रहा। जहाँ तक जैन आगमों का प्रश्न है उनमें कुछ संस्कारों के थोड़े बहुत उल्लेख तो अवश्य मिलते हैं किन्तु वहाँ भी संस्कारों के विधि-विधानों का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। ऐसी स्थिति में आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचार दिनकर एक ऐसा ग्रन्थ सिद्ध होता है जिसमें न केवल मुनि, न केवल गृहस्थ, अपितु गृहस्थ तथा मुनि दोनों में सामान्य रूप से प्रचलित संस्कारों व उनके विधि-विधानों का सुव्यवस्थित और सुस्पष्ट विवेचन हुआ है।
प्रस्तुत ग्रन्थ चालीस उदयों में विभाजित है जिसे आचार्य जी ने तीन भागों में बांट दिया है। प्रथम भाग में गृहस्थ सम्बन्धी, द्वितीय भाग में मुनि सम्बन्धी तथा तृतीय भाग में गृहस्थ और मुनि दोनों द्वारा सामान्य रूप से आचरणीय विधि-विधानों का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में वर्णित जो संस्कार हैं उन्हें वर्धमानसूरि जी ने उस युग में प्रचलित व्यवस्था से ही ग्रहण किया है, क्योंकि इस ग्रन्थ में वर्णित चारों विधियां हिन्दू परम्परा से ही ली गयी हैं। जैनाचार्यों द्वारा उनका जैनीकरण मात्र किया गया है। इस दृष्टि को सामने रखकर जैन परम्परा और उस समय की सामाजिक-व्यवस्था में प्रचलित विधि-विधानों को इस ग्रन्थ में सर्वथा नवीन रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत