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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ जनवरी-मार्च २००७
जैन साहित्य में वर्णित व्यापारिक साधन
डॉ० संजय कुमार पाण्डेय*
व्यापार में व्यापारिक साधन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। देश की आर्थिक समृद्धि आवागमन के साधनों पर निर्भर रही है। कृषि और उद्योग से उत्पादित वस्तुओं का व्यापार आवागमन के साधनों के अभाव में संभव नहीं है। मनुष्य सर्वप्रथम जब इस धरातल पर आया तो अपनी क्षुधापूर्ति के लिए प्रकृति प्रदत्त कन्द, मूल, फल, शाक आदि को खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग करता रहा। वह अपनी खाद्य संग्रहक एवं आखेटक की प्रारम्भिक दशा में ही एक स्थल से दूसरे स्थल की यात्रा करना शुरू कर दिया था, क्योंकि एक जगह से ही खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति अधिक समय तक हो पाना सम्भव नहीं था। उस समय भी उसके पास कुछ न कुछ सामान अवश्य ही रहा होगा, जिसे एक जगह से दूसरी जगह जाते समय मनुष्य अपने साथ ले जाता रहा होगा। जैसे-जैसे मनुष्य विकास की ओर अग्रसर हुआ, वैसेवैसे ही अधिकाधिक सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक संस्थाओं का प्रादुर्भाव, विकास एवं सुसंगठन भी होता गया। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मनुष्य अपने प्रादुर्भाव एवं विकास के साथ ही परिवहन के साधनों पर निर्भर करता आ रहा है। वह प्रारम्भिक काल से ही यातायात के साधनों के रूप में मनुष्यों, पशुओं आदि का उपयोग करता रहा है।
__ जैन साहित्य में उपलब्ध साक्ष्यों से स्पष्ट है कि जल और स्थल मार्गों से सम्पूर्ण भारतवर्ष जुड़ा हुआ था। इनमें से कुछ पथ तो मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया तक जाते थे। सिकन्दर के अभियान (आक्रमण) के बाद भारत की पश्चिमोत्तर सीमाओं पर विदेशियों का आधिपत्य व्यापारियों के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ। शक, पल्लव और कुषाण राजाओं ने भारतीय व्यापारियों के लिए मध्य एशिया के मार्ग खोल दिये थे।
थल मार्गों के लिये रथ, शकट, बैलगाड़ी, घोड़ा, ऊंट इत्यादि व्यापारिक साधन थे।३ 'उपासकदशांग' से ज्ञात होता है कि गाथापति आनन्द के पास माल और सवारी ढोने के लिये पाँच-पाँच सौ शकट थे। “व्यवहारभाष्य' में प्राप्त विवरण के अनुसार एक राज्याधिकारी ने राजकुल के कार्य हेतु एक गाड़ी तय किया था, जिसका * प्राध्यापक, प्राचीन इतिहास, अभय महाविद्यालय, तरना, वाराणसी