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जैन एवं शैव धर्मों के बीच समीपता के साहित्यिक एवं ... : ८५
... अभिनवगुप्त जिनका काल ९५० ई० से १००० ई० है। इन्हें 'कश्मीर शैव-दर्शन' का पुरोधा माना जाता है, इनके द्वारा रचित ग्रंथ 'विपुल काव्य ग्रंथ तंत्रालोक' में शैवधर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में 'जैन' (अर्हत) की भी गणना है। दसवीं और ग्यारहवीं शती के कुछ जैन रहस्यवादी संतों ने जिन, बुद्ध, विष्णु और शिव को तत्त्वत: एक ही मानकर उनको शिव का रूपांतरण माना है। 'जोइ,' के अपभ्रंश ग्रंथ 'योगसार'६ का कथन है, जो शिव शंकर है वही 'विष्णु', वही 'जिन', वही 'ईश्वर' और 'अनंत' है। इसी ग्रंथ का कथन है, जैन धर्म में व्याख्यात परमात्मा जिन, विष्णु और शिव है। ‘परमात्म-प्रकाश' भी एक जैन ग्रंथ है जो शिव को नित्य, निरंजन, ज्ञानमय और परमानंद स्वभाव के रूप से वर्णित करता है। ‘पाहुडदोहा' ग्रंथ में उल्लिखित है - 'सिव विणु सत्ति ण वावरई सिउ पुणु सत्तिविहीणु' इससे स्पष्ट है कि 'जिन' और 'शिव' की एकात्मकता रही है, साथ ही शैवमत के अनेक दार्शनिक सिद्धांतों के उल्लेख भी इस ग्रंथ में मिलते हैं। 'प्रबन्धचिंतामणि' के अनुसार राजा 'कुमारपाल' के गुरु जैनाचार्य हेमचन्द्र ने सोमनाथ स्तुति की रचना की थी।' इतना ही नहीं कुमारपाल ने हेमचन्द्र के कहने से ही सोमनाथ मंदिर का निर्माण किया था। ऐसी ही कथा ‘हरिभद्रसूरि' के विषय में भी प्रचलित है।
___ साहित्यिक स्रोतों में 'जैन' एवं 'शैव' धर्म की समीपता के उल्लेख तो . मिलते ही हैं साथ ही, कुछ पुरातात्त्विक साक्ष्य भी उस काल की जीवतंताओं का उल्लेख करते हैं। कोक्कल के वैद्यनाथ मंदिर (खजुराहो) से प्राप्त वि० सं० १०११ का एक अभिलेख जिन, वामन तथा वेदांतियों के ब्रह्म को शिव का ही रूपांतर बतलाता है - 'यं वेदांत विदो विदन्ति मनसः संकल्पभूतं शिवं ...' चितौड़गढ़ से उपलब्ध कुमारपाल सोलंकी का (वि०सं० १२०७, ११४९-५० ई०) अभिलेख, शिवमंदिर के निर्माण की प्रशस्ति है।
जावलिपुर शाखा के प्रवर्तक चाहमानवंशीय कीर्तिपाल के नाडोल से उपलब्ध वि०सं० १२१४ (११५६ ई०) के ताम्रशासन१२ का मांगलिक श्लोक ब्रह्मा, श्रीधर और शंकर की विरागवान जिनों के रूप में कल्पना करता है -
शैवतीर्थ राजस्थान में इस काल के जैनों के लिए पवित्र और मान्य थे। श्वेताम्बर अनंत्यदेवाचार्य से धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् अमराणक ने शैव तीर्थ कालकालेश्वर में स्नान कर जैन मंदिर को भूमिदान दिया था।१३ 'शालिग' और 'पुत्रिग' नामक जैन श्रावकों के परिश्रम से महाराज श्री अल्हणदेव ने शिवरात्रि तथा कुछ