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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ जनवरी-मार्च २००७
जैन एवं शैव धर्मों के बीच समीपता के साहित्यिक एवं अभिलेखीय प्रमाण
डॉ० कृष्णकान्त मिश्र*
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प्राचीन काल से ही अनेक साम्प्रदायिक धर्मों के उदय और प्रसार ने, जिनमें जैन, बौद्ध, वैष्णव और शैव धर्म उल्लेखनीय हैं, भारत के सम्पूर्ण धार्मिक दृष्टिकोण को मूलत: बदल दिया। सभी धर्मों का मूल एक ही था, मगर दृष्टिकोण अलगअलग। वैदिक कर्मकाण्डों की जटिलता, वैदिक धर्म में ब्राह्मणों का एकाधिपत्य, आर्य एवं अनार्य विचारधाराओं का संघर्ष, बहुदेववाद, कठोर वर्ण-व्यवस्था आदि के कारण जिन धर्मों का विकास हुआ, उनमें जैन धर्म का उल्लेखनीय स्थान है। गंभीरता से विचार किया जाए तो इन सारे धर्मों के सार-तत्त्व में समीपता दिखाई पड़ती है। इन्हीं कारणों से विद्वानों के बीच वैचारिक मतभेद भी उत्पन्न हुए। कतिपय इतिहासकार जैनधर्म को पूर्व-ऐतिहासिक परम्परा से जोड़ते हैं तथा इसका सम्बन्ध मोहनजोदड़ों की योगीमूर्ति से बतलाते हैं। जबकि मार्शल जैसे विद्वान् ने इस योगी की मूर्ति को 'शिव' से सम्बन्धित माना है। कुछ अन्य विद्वान् 'ऋग्वेद' में उल्लेखित तपस्वियों
और जैन श्रमणों में सम्बन्ध स्थापना करते हैं। सौभाग्य से 'ऋषभदेव' का जीवन चरित्र जैन-साहित्य में ही नहीं, बल्कि वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। ‘भागवतपुराण' के पांचवें स्कंध के प्रथम छ: अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन व तपस्या का विवरण सुरक्षित है। ऋषभदेव का नाम 'ऋग्वेद' में भी मिलता है। 'अथर्ववेद' और 'गोपथब्राह्मण' में स्वयंभू काश्यप का उल्लेख मिलता है जिसका समीकरण विद्वानों ने ऋषभदेव से ही लगाया है। मोहनजोदड़ों से प्राप्त आकृति में योगी को नग्न अवस्था में दिखाया गया है, जो जैन साधु को प्रदर्शित करता है।
__ईसा पश्चात् ६वीं-७वीं शताब्दी के शैवधर्म की बात करें तो देखेंगे कि दक्षिण भारत में जैन एवं शैव धर्म का मतभेद चल रहा था। शास्त्र का समर्थन शस्त्र कर रहे थे। ईसा पूर्व पहली सदी से लेकर ५वीं सदी तक जैनों का ज्यादा प्रभाव था। उस समय रचित साहित्य में 'तिरूक्कुरल, शिल्पादिकरम' 'मणिमैखले' जैसे जैनसाहित्य का निर्माण अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक विवाद में राजनीति कुचक्र छिपा बैठा था। उस समय उत्तरापथ की धार्मिक कहानी कुछ और थी, इन्हीं अज्ञात एवं अल्पज्ञात तत्त्वों की विवेचना प्रस्तुत की जा रही है। * प्राध्यापक, इतिहास विभाग, राजकीय पी०जी० कालेज, कोटद्धार (गढ़वाल)