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तीस वर्ष और तीन वर्ष : १५
१. दोनों ही अपरिग्रह (संपत्ति-त्याग) और सह-भाजन-संविभाग को मुक्ति का एक उपाय बताते हैं।
२. दोनों ही यह मानते हैं कि सभी संसारी जीव मूलत: पापी या दुःखी (चाहे कर्मवाद के कारण या ईश्वर के उपदेश की अवज्ञा के कारण) हैं। पाप-मुक्ति या दुःखमुक्ति अनंत जीवन पाने का मार्ग है।
३. अमर आत्मा और मुक्ति की धारणा दोनों मानते हैं।
४. दोनों ने ही चार कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) को छोड़ने का उपदेश दिया है। वस्तुत: सभी कषायों की एक सीमा तक जीवन में उपयोगिता है। सीमा का उल्लंघन ही हानिकर कष्टकर होता है।
५. प्रलय का निराशावादी वर्णन दोनों धर्मों में समान हैं। लोगों में धर्मविहीनता क्रमश: बढ़ती जायेगी।
६. दोनों ही प्रार्थना, भजन व ध्यान और महात्माओं के उपदेशों में विश्वास को आत्मिक उन्नति में महत्त्व देते हैं। दोनों के ही उपदेश आत्मिक उत्थान को महत्त्व देते हैं।
७. दोनों ही साप्ताहिक विश्रांति दिवस मानते हैं। महावीर पक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को व्रत मानते हैं। महात्मा ईसा सातवें दिवस- रविवार को विश्रांति दिवस मानते हैं।
८. महावीर के दश धर्म और पांच व्रतों की मान्यता ईसा के दस आदेशों में पाई जाती है। -
९. दोनों ही उपवास और अवमौदर्य (भूख से कम खाना) व्रत को मानते हैं। १०. दोनों ने ही मांसाहार एवं मदिरा-पान को अशिष्ट व्यवहार बताया है।
११. दोनों ही महापुरुषों ने स्त्रियों के समानाधिकार का विधान करके भी पुरुष की ज्येष्ठता मानी है और उन्हें मुक्ति का अधिकार भी नहीं दिया है। वे चर्च में बोल भी नहीं सकती, वे बिना सिर ढके वहाँ नहीं जा सकती। जैन आगम और बाइबिल इस प्रकरण में मौन हैं। जैनों में तो महिला साध्वियों तथा मुक्ति प्राप्त महिलाओं के पर्याप्त उल्लेख पाये जाते हैं, पर बाइबिल में इस कोटि का उदाहरण नहीं पाया जाता है।
१२. दोनों ने ही पर-स्त्रीगमन तथा तलाक का विरोध किया है।