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२४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
६. जैनों का अनेकांतवाद इसकी उत्तमता की धारणा को भ्रांत बनाता है। यह विरोधी-समागम का एक रूप है। इसका प्रजातांत्रिक अनेकेश्वरवाद भी एकेश्वरवाद की तुलना में सामान्य जन के लिये आकर्षक नहीं लगता। तथापि ये दोनों सिद्धांत जैनधर्म की आत्मा हैं एवं समभाव तथा समन्वय के प्रतीक हैं। पार्लियामेंट आव वर्ल्ड रेलीजन्स, असेंबली आव वर्ल्ड रेलीजन्स, अन्तर्विश्वासीय तथा नवयुग के समान अनेक संगठन इसके वर्तमान रूप हैं। महात्मा ईसा भी इन दोनों सिद्धांतों के परोक्षतः समर्थक थे, पर उन्होंने स्पष्ट रूप से इन पर मौन रखा। फलतः वे अधिक आकर्षण के केन्द्र बने।
७. भगवान महावीर ने अपने युग में चतुर्विध संघ की स्थापना की जिससे धर्म संस्था में परस्परावलम्बन स्थायी बना रहे। पर उनके युग में, संभवत: मंदिर एवं पूजा-स्थल नहीं थे। फलत: जब उत्तरवर्ती काल में इनका विकास हुआ, तो धर्मादा तो बना, पर उसका उपयोग धर्म-प्रचार में न कर नये-नये मंदिरों के निर्माण तथा अन्य प्रभावक धार्मिक आयोजनों में होने लगा। मंदिरों में गृहस्थ जन ही दैनिक कृत्य करते थे, माली ही मंदिर का सर्वेसर्वा था। पुजारी या पंडित की भी वहां कोई व्यवस्था नहीं थी। यह प्रथा आज कहीं-कहीं चलने लगी है, पर धर्म-प्रचार पर इसका जोर नगण्य है। इसके विपर्यास में, ईसाई धर्म में गिरजाघरों में कार्यरत ‘फादर' और अन्य कर्मचारी धार्मिकता के संरक्षण के साथ, प्रचार कार्य में भी लगे रहते हैं।
८. महावीर के उत्तरवर्ती आचार्यों ने धर्म-प्रचार की दिशा में न सोचा ही, न कोई संगठन बनाया। वे तो अन्य धर्मियों को मिथ्यात्वी कहकर उनके ग्रंथों के अध्ययन तक को निरुत्साहित करते रहे। 'जनधर्म' कहकर भी उन्होंने नव-जैनों का स्वागत नहीं किया। वे बौद्धिक चर्चाओं, शास्त्रार्थ एवं ग्रंथलेखन में ही लगे रहे। इनके साधुओं की सीमित पदयात्रायें ही इसे अब तक सुरक्षित रख सकी है। वे ही इसके सबसे बड़े प्रचारक हैं और रहे हैं।
इसके विपर्यास में, ईसा ने स्वयं और उसके अनुयायियों ने प्रचारक मंडलियाँ गठित की और १० प्रतिशत के आधार पर प्राप्त अनुदान से विभिन्न क्षेत्रों और देशों में अन-ईसाई लोगों में नियमित प्रचार किया और कर रहे हैं। आज अनेक जैन विद्वान् एवं साधु भी इस दिशा में काम कर रहे हैं, पर इनका काम मुख्यत: संरक्षण का है, संवर्धन का नहीं, इसका फल भी उन्हें मिला है और जैनधर्म को बुद्धिवादियों का समर्थन मिलने लगा है। इस प्रक्रिया में उज्ज्वल भविष्य की आशा की जा सकती है।
९. जैनों ने धर्म-प्रचार का कार्य तो नहीं ही किया, उन्होंने अपने साहित्य को भी प्रसारित नहीं होने दिया। वे इसे पवित्र मानकर जैनेतर मतवादियों में कैसे प्रसारित