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३८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
२१. शैलावभक्षी - जल जमाव से निर्मित काई का आहार करने वाले। २२. मूलाहारी - मूल का आहार करने वाले। २३. कन्दाहारी - कन्द का आहार करने वाले। २४. त्वचाहारी - वृक्ष छाल का आहार ग्रहण करने वाले। २५. पत्राहारी - वृक्ष के पत्रों को आहार रूप में ग्रहण करने वाले। २६. पुष्पाहारी - फूलों का आहार ग्रहण करने वाले। २७. बीजाहार - बीज को आहार रूप में ग्रहण करने वाले।
इन तापसों के अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे तापस थे जो कंद, मूल, फल आदि खाकर अपना जीवनयापन करते थे। कुछ साधक ऐसे भी थे जो पंचाग्नि की आतापना तथा सूर्य की आतापना से अपने शरीर को कठोर करते थे। आजीवक
_ 'आजीवन्ति ये अविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि इत्याजीविकाः', अर्थात् जो पूजा-प्रतिष्ठा के लिए संयम जीवन यापन करते हैं, वे आजीवक कहलाते हैं। 'स्थानांगसूत्र' में आजीवकों द्वारा किये जाने वाले चार तपों का उल्लेख मिलता है- उग्र तप, घोर तप, रसनिर्पूणा तप और जिह्वेन्द्रिय तप।
१. उग्र तप - षष्ठ भक्त उपवास, वेला, तेला आदि करना। २. घोर तप - सूर्य की आतापना के साथ उपवास भी करना। ३. रसनि!हण तप - घृत आदि रसों का परित्याग करना।
४. जिह्वेन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप - मनोज्ञ और अमनोज्ञ भक्तपानादि में राग-द्वेष रहित होकर जिह्वेन्द्रिय को वश में करना।
'औपपातिकसूत्र' में आजीवक के सात प्रकार बताये गये हैं
१. दुघरंतिया - एक घर से भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पुन: दो घर छोड़कर तृतीय घर से भिक्षा ग्रहण करने वाले।
२. तिघरंतिया - एक घर से भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पुन: तीन घर छोड़कर भिक्षा ग्रहण करने वाले।
३. सतघरंतिया - एक घर से भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पुन: सात घर छोड़कर भिक्षा ग्रहण करने वाले।