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७८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
४. पडिलोमइत्ता- प्रतिवादी की उपेक्षा कर देना। ५. भइत्ता- विवादाध्यक्ष को अपने पक्ष में कर लेना। ६. भेलइत्ता- निर्णायकों में अपने समर्थकों का बहुमत कर लेना।
शास्त्रार्थ के जो उपर्युक्त छःप्रकार बताये गये हैं, वे किसी भी प्रकार से जीत की अपेक्षा से बताये गये हैं। क्योंकि सामान्य रूप से शास्त्रार्थ के मूलत: चार ही अंग होते हैं- वादी, प्रतिवादी, अध्यक्ष और सभ्य निर्णय। किन्तु 'स्थानांगसूत्र' में उपर्युक्त छ प्रकार जैन चिन्तकों की इस भावना को दर्शाता है कि वे प्रतिवादी को किसी भी तरह से हराने की इच्छा से शास्त्रार्थ करने बैठते थे।
इसी प्रकार दस प्रकार के तर्कदोष बताये गये हैं
१. तज्जात दोष- तज्जात दोष ऐसे दोष को कहा गया है जब वादकाल में प्रतिवादी से क्षुब्ध होकर वादी चुप हो जाता है।
२. मतिभंग दोष- विवाद करने वाले व्यक्ति की स्मृति में दोष उत्पन्न होना मतिभंग तर्कदोष है।
३. प्रशास्तृ दोष- यह दोष तब उत्पन्न होता है जब कोई अधिकारिक व्यक्ति (सभाध्यक्ष) पक्षपात प्रदर्शित करता है।
४. परिहरण दोष- यह दोष तब उत्पन्न होता है जब वाद-विवाद के क्रम में वादी द्वारा दिये दोष का छल या जाति से परिहार किया जाता है।
५. स्व-लक्षणादोष- यह दोष तब उत्पन्न होता है जब वाद-विवाद में आये हुए पदों की परिभाषा उचित रूप से नहीं की जाती है। अर्थात् वे पद अव्याप्ति, अतिव्याप्ति या असंभवदोष से ग्रसित हों।
६. कारण दोष- यह दोष तब उत्पन्न होता है जब चर्चा क्रमवार रूप से नहीं की जाती है। अर्थात् कभी कारण सामग्री के एक अंश को कारण मान लेना या कभी पूर्ववर्ती होने मात्र से कारण मानना।
७. हेतु दोष- हेतु की असिद्धता, विरुद्धता आदि दोष से युक्त होना हेतु दोष
८. संक्रमण दोष- संक्रमण दोष वैसे दोष को कहा जाता है जब विवाद करने वाला व्यक्ति चर्चा के विषय को अकारण बदल देता है। अर्थात् प्रमेय को छोड़कर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना संक्रमण दोष है।
९. निग्रह दोष- छल, जाति, वितण्डा आदि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत कर देना निग्रह दोष है।