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भारतीय तर्कशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : ७९
१०. वस्तु दोष- पक्ष सम्बन्धी प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमान निराकृत आदि दोषों । में से किसी दोष का होना वस्तु दोष है।
इससे यह स्पष्ट है कि प्राचीन जैन धर्मग्रन्थों में तार्किक शब्दावलियाँ पायी जाती हैं जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है। परन्तु तर्कशास्त्र पर व्यवस्थित पुस्तक प्राचीन काल में नहीं लिखी गई थी। ऐसा माना जाता है कि जो कार्य बौद्ध दर्शन में दिङ्नाग ने किया वही कार्य जैन दर्शन में अकलंक ने किया। अकलंक के ग्रन्थों में जैन प्रमाणमीमांसा के विकसित स्वरूप का दर्शन हो पाता है। अकलंक से पूर्व सिद्धसेन के न्यायावतार' में जैन प्रमाणमीमांसा का उल्लेख मिलता है किन्तु उसमें परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि भेदों का निरूपण नहीं हुआ है, अत: यहाँ जैन प्रमाणमीमांसा का विकसित रूप प्राप्त नहीं होता है। सामान्यत: प्रमाण को प्रत्यक्ष
और परोक्ष दो रूपों में विभक्त किया गया है। अवधि, मन:पर्यव और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है तथा मति और श्रुत को परोक्ष माना गया है। जैन दर्शन में प्रत्यक्ष और परोक्ष को अन्य दर्शनों से भिन्न रूप में परिभाषित किया गया है। यहाँ इन्द्रिय और अर्थ के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे परोक्ष ज्ञान तथा आत्मा के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण आत्माश्रित है। प्रत्यक्ष का यह स्वरूप आगमों में मिलता है। लेकिन प्रश्न उठता है कि जैन दर्शन अन्य दर्शनों की भाँति इन्द्रिय-व्यापार से जनित ज्ञान को प्रत्यक्ष और इन्द्रिय-व्यापार से रहित ज्ञान को परोक्ष क्यों नहीं मानता? इसका उत्तर देते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि यदि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष इन्द्रिय के निमित्त से हो तो सर्वज्ञ समस्त पदार्थों को प्रत्यक्षपूर्वक नहीं जान सकेगा, अर्थात् उसकी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होगी, क्योंकि आप्तपुरुष सर्वज्ञ है तथा वह समस्त पदार्थों का प्रतिक्षण प्रत्यक्ष करता है। उसकी यह प्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह मात्र आत्मा द्वारा समस्त अर्थों को जानता हो। लेकिन जैनों की यह मान्यता ज्यादा दिन तक अक्षुण्ण नहीं रह पायी, क्योंकि समस्या उत्पन्न हुई कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न ज्ञान को स्वीकार किये बिना वे न्याय, मीमांसा, सांख्य, बौद्ध आदि की प्रमाण चर्चा में भाग नहीं ले सकते। इस समस्या का समाधान करते हुए अकलंक ने प्रत्यक्ष को दो भागों में विभाजित कियासांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्षा प्रत्यक्ष का यह विभाजन लोक व्यवहार को दृष्टि में रख कर किया गया है। तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यद्यपि ज्ञान रूप होने के कारण यह भी ज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा में ही प्रकट होता है, किन्तु इन्द्रियादि के निमित्त से होने के कारण यह सांव्यवहारिक कहलाता है। अकलंक ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के पुन: दो भेद किये- इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष। सामान्यत: इन्द्रियों के माध्यम से होने वाले बाह्य अर्थों के ज्ञान को उन्होंने इन्द्रिय प्रत्यक्ष