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भारतीय तर्कशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : ८१
प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में प्रमाण को विभाजित करके जैन चिन्तकों ने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम (शब्द) को परोक्ष प्रमान के अन्तर्गत मान लिया जिसे भारतीय दर्शन के क्षेत्र में जैन दर्शन का अनुपम अवदान कहा जा सकता है। क्योंकि भारतीय दर्शन की अन्य शाखाओं में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार स्मृति अन्य प्रमाण द्वारा गृहीत अर्थ का ज्ञान कराती है अर्थात् वह अनधिगत अ का ग्राही है, अत: वह प्रमाण नहीं है । " इसी प्रकार न्याय दर्शन स्मृति को प्रमा और अप्रमा दोनों ही श्रेणी से बाहर करते हुए उसे आत्मा की नित्यता सिद्ध करने के लिए साधकतम हेतु मानता है । यद्यपि स्मृति की उपादेयता को न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि स्वीकार करते हैं, क्योंकि स्मृति के बिना व्याप्ति और अनुमान नहीं हो सकता। बौद्ध दार्शनिक भी स्मृति को प्रमाण नहीं मानते, क्योंकि स्मृति गृहीत अर्थ का ज्ञान कराती है। जैन दार्शनिकों ने स्मृति को स्वतंत्र प्रमाण मानते हुए कहा कि संस्कार hi जागृति से उत्पन्न अनुभूत अर्थ को विषय करने वाला एवं तत् आकार वाला ज्ञान स्मृति है । १२
प्रत्यभिज्ञान को न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्वीकार करते हैं। न्याय दर्शन इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत मानता है । १३ वैशेषिक दर्शन उसे संस्कारजन्य एवं इन्द्रियजन्य होने से प्रत्यक्ष की श्रेणी में रखता है । ४ इसी प्रकार मीमांसकों ने इन्द्रिय-व्यापार के कारण प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। १५ बौद्ध इसे स्मृति की भाँति प्रमाण मानते ही नहीं है। जैन दार्शनिक प्रत्यभिज्ञान को अविसंवादक मानते हैं और कहते हैं कि स्मृति प्रमाण का फल प्रत्यभिज्ञान है और प्रत्यभिज्ञान का फल तर्क है । १६
तर्क को ऊह भी कहा गया है। न्याय, वैशेषिक, बौद्ध आदि तर्क को प्रमाण का उपग्राहक मानते हैं और इस कारण उसे प्रमाण की श्रेणी में नहीं स्वीकार करते । इसी प्रकार सांख्य, मीमांसा और अद्वैतवेदान्त तर्क को अनुमान अथवा अर्थापत्ति में अन्तर्भाव करते हैं। जहाँ तक जैन दार्शनिकों का प्रश्न है तो वे व्याप्तिग्राहक के रूप में तर्क को स्वीकार करते हैं। तर्क के स्वरूप को स्पष्ट कते हुए 'प्रमाणपरीक्षा' में कहा गया है कि जितना भी कोई धूम है वह सब अग्नि से उत्पन्न होता है। अग्नि के अभाव में धूम की उत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार सकल देश और सकल काल की व्याप्ति से साध्य एवं साधन के सम्बन्ध का जो ऊहापोह ज्ञान होता है वह तर्क है । १७ माणिक्यनन्दी ने तर्क को परिभाषित करते हुए कहा है कि उपलम्भ और अनुपलम्भ से उत्पन्न व्याप्तिज्ञान तर्क है।" यहाँ यह कहा जा सकता है कि जैन