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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ जनवरी-मार्च २००७
भारतीय तर्कशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान
डा० राकेश कुमार सिंह
तथ्यों का तार्किक विश्लेषण और वैज्ञानिक व्याख्या आधुनिक युग की अनिवार्य आवश्यकता है। भारतीय समाज के लिए पाश्चात्य तर्क - व्यवस्था अत्यन्त शुष्क और दुर्गम है। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय समाज के लिए उसके अपने परम्परागत तर्कशास्त्र को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत कर सुगम और सुव्यवस्थित बनाया जाय। वैज्ञानिक तर्कशास्त्र संशयवाद, भाववाद पर आधारित होता है। ऐसा तर्कशास्त्र भारतीय दर्शन में भी पाया जाता है, किन्तु कतिपय कारणों से यह अध्यात्मवाद में विलीन हो गया है। इसलिए आवश्यकता है कि भारतीय तर्कशास्त्र के इतिहास की समीक्षा करने की। इस उदेश्य की पूर्ति हेतु जैन तर्कमीमांसा को हमने अपना विषय बनाया है।
भारतीय दर्शन का मध्यकाल जैन तर्कशास्त्र के विकास का काल कहा जा सकता है, क्योंकि उस काल में बहुत से ऐसे धुरन्धर तर्कशास्त्री हए जिन्होंने जैन तर्क-व्यवस्था को एक नया रूप प्रदान किया, जिनमें समंतभद्र, अकलंकदेव, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, माणिक्यनंदी, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, हरिभद्रसूरि, सिद्धर्षिगणि, अभयदेवसूरि, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि प्रमुख हैं।
जैन धर्मग्रन्थों- अंग और उपांगों में सूत्र रूप में तर्कशास्त्र के तत्त्व पाये जाते हैं। ‘भगवतीसूत्र' जो अंग है तथा 'प्रज्ञापनासूत्र' जो उपांग है, में नय की चर्चा पायी जाती है। 'स्थानांगसूत्र' और 'भगवतीसूत्र' में वैध ज्ञान का वर्गीकरण पाया जाता है। ग्रन्थों में हेतु शब्द बार-बार आया है। यहाँ हेतु शब्द का अर्थ कारण, निमित्त, अनुमान वाक्य, अनुमान का साधन आदि है। सामान्य रूप से साध्य की सिद्धि करने को हेतु कहते हैं। 'स्थानांगसूत्र' में तीन दृष्टियों से हेतु के प्रकार बताये गये हैं
१. वादी-प्रतिवादी के बीच होने वाले शास्त्रार्थ की दृष्टि से। २. अनुमान प्रमाण के अंग के रूप में तथा ३. विधि और निषेध रूप में।
* रामराज्य मोड़, आन्दर ढ़ाला, सीवान (बिहार)