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वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में सामाजिक पारस्परिकता : ४३
इन लोगों को ब्राह्मणवादी मान्यता अपने ऊपर लादनी पड़ी और ये लोग अपने को वैश्य समझने लगे।
ब्राह्मण परम्परा ने भले ही अपनी मान्यता श्रमण परम्परा पर किसी न किसी रूप में लागू कर दी, पर ऐसा मानने में कोई आशंका नहीं होती है कि समाज में कर्मगत मान्यता को व्यवहार में श्रमण परम्परा ने ही लाया है और उससे प्रभावित होकर ब्राह्मण परम्परा के लोगों में भी कर्म पर पहले जैसा प्रतिबंध नहीं देखा जाता है। ब्राह्मण वैदिक परम्परा के सिरमौर समझे जाते हैं। वे भी खेती, व्यापार या अन्य कर्म करते हैं। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी अब पढ़ते हैं, पढाते हैं।
विवाह समाज का एक प्रमुख विषय है, क्योंकि इसी से समाज बनता है। भारतीय संस्कृति में विवाह के लिए जातिगत तथा धर्मगत प्रतिबंध पहले से चले आ रहे हैं। लेकिन वैदिक परम्परा के वैश्य वर्ग के कुछ लोग तथा जैन धर्मावलम्बियों के कुछ लोगों के बीच विवाह होते हैं। इन लोगों में कुल प्रतिबंध नहीं देखा जाता है, जैसे अग्रवाल आदि। जहाँ तक शादी की विधि की बात है तो जैन परम्परा में कुछ आचार्यों ने नई विधियों का प्रतिपादन किया है, फिर भी अधिकांश शादियाँ वैदिक रीति से ही होती हैं।
समाज में अर्थ का बहुत महत्त्व होता है। भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है। जैन मान्यतानुसार कृषि की शिक्षा भगवान ऋषभदेव ने दी। वैदिक परम्परा के राम बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रत'४के समकालीन थे और उन्हीं के समय राजा जनक ने भी कृषि को प्रधानता देते हुए अकाल पड़ने पर हल चलाया था। इससे यह स्पष्ट है कि दोनों ही परम्परायें कृषि को प्रधानता देती हैं। इस तरह न केवल वैदिक परम्परा बल्कि जैन परम्परा का भी भारतीय अर्थ-व्यवस्था के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
जैन मान्यतानुसार ब्राह्मी लिपि जो बहुत ही प्रचलित लिपि है, उसे ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिखलाई थी तथा भरतनाट्यम् जिसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त है वह भी जैन परम्परा की ही देन है, क्योंकि ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत को ७२ कलाओं की शिक्षा दी थी। जैन मान्यतानुसार यह भरतनाट्यम् उन्हीं के नाम पर है। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि जैन परम्परा ही के विभिन्न प्रभाव वैदिक परम्परा पर हैं, क्योंकि व्यवहार में बहुत-सी ऐसी बातें देखी जाती हैं जिससे स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा भी वैदिक परम्परा से बहुत हद तक प्रभावित है। जैसे जैन लोगों के द्वारा विभिन्न स्थानों पर जन्माष्टमी के समय कृष्ण की पूजा होती है और जन्माष्टमी विधिवत मनाई जाती है। ऐसे ही नवरात्र के समय दुर्गा की पूजा होती है। नागपंचमी के समय नाग की पूजा होती है। इस तरह से वैदिक और जैन दोनों परम्पराएँ एकदूसरे को प्रभावित करती हैं।