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जैन एवं बौद्ध धर्मों में चतुर्विध संघों का परस्पर योगदान
संघ की बात ठीक इससे उल्टी थी। जैसा कि भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी ने अपने संघ के भिक्षुओं से कहा था कि लोगों के हित और सुख के लिये चारों दिशाओं में जाओ । इस प्रकार के कार्यों से भिक्षु संघ दीर्घ जनसमाज में प्रिय और मान्य हो गया। फलतः बुद्ध और महावीर के उपासकों की संख्या बढती ही गयी और श्रमणों व उपासकों के मध्य एक सुन्दर और सही तालमेल बैठा।
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जैन और बौद्ध, दोनों ही चतुर्विध संघों में संघ की प्रतिष्ठा व पवित्रता बनी रहे इसके लिये स्त्री-पुरुषों के प्रवेश सम्बन्धी कुछ नियमों का विधान किया गया था। दोनों ही धर्मों में प्रारम्भ में तो संघ में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को बिना किसी पूछताछ के उसकी स्वयं की इच्छा से संघ में प्रवेश दे दिया जाता था, किन्तु कालान्तर में अभिभावकों की इच्छा को देखते हुए माता-पिता या अभिभावक की अनुमति को आवश्यक माना जाने लगा। क्योंकि माता-पिता की अनुमति के बिना संघ में प्रवेश देने से कई व्यवधान उत्पन्न होने लगे। कई व्यक्ति तो अपने माता-पिता या आश्रितों के लिए एकमात्र सहारा होते थे और उनके प्रव्रजित हो जाने पर परिवार के निर्वहन की समस्या उत्पन्न हो जाती थी, अतः दीक्षित होने के लिए माता-पिता, पति या पत्नी आदि की अनुमति को आवश्यक माना जाने लगा। 'महावग्ग' में वर्णन हैस्वयं भगवान बुद्ध के एकमात्र पुत्र राहुल के प्रव्रज्या ग्रहण करने से दुःखी संतप्त उनके पिता राजा शुद्धोधन ने गौतम के सामने यह प्रस्ताव रखा कि आगे से बिना अभिभावक की अनुमति से कोई भी प्रव्रज्या न ग्रहण करे। * संघ में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को अनेक प्रकार के प्रश्नों के समाधान के पश्चात् ही संघ में प्रवेश दिया जाने लगा। कुष्ठ, किलास, शोथ, अपस्मार, दास आदि को भी बौद्ध संघ में प्रवेश के अयोग्य माना गया है।" ' स्थानांगसूत्र' में भी ऐसे बीस व्यक्तियों की सूची दी गयी है जो संघ में प्रवेश के सर्वथा अयोग्य माने गये थे। इसी भाँति बौद्ध धर्म के 'चुल्लवग्ग' और 'भिक्षुणी विनय' में भी उल्लेख है कि अनेक प्रश्नों के उचित समाधान के पश्चात् ही संघ में प्रवेश दिया जाता था । यद्यपि बौद्ध संघ में ज्यादातर प्रश्नों को उपसम्पदा प्रदान करते समय पूछा जाता था, ताकि प्रव्रज्या प्राप्त करने के पश्चात् इन दोषों के कारण किसी शिक्षमाण या शिक्षमाणा को निराश न होना पड़े। संभवत: इन नियमों के विधान की आवश्यकता संघ की अनावश्यक वृद्धि और उसके पश्चात् होने वाले विवादों को रोकने तथा संघ की पवित्रता को बनाए रखने के लिये की गयी। अयोग्य व्यक्ति के संघ के प्रवेश करने से भिक्षुओं के चारित्रिक पतन की संभावना थी। संघ सभी प्रकार के झगड़ों और अयोग्य व्यक्ति के प्रवेश के उपरान्त उत्पन्न हुए व्यवधान से अपने आपको मुक्त रखना चाहता था। अतः संघ जो एक पवित्र संस्था थी और धार्मिक कार्यों का निर्वहन ही उसका मुख्य उद्देश्य था, इसलिए