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: श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७
परिणामस्वरूप नहीं, अपितु उत्तम प्रकृति और ज्ञानी होने के कारण उच्च माना। तभी तो उनके संघ में एक नीच कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति आर्यधर्म विनय को जानने वालों में श्रेष्ठतम गिना गया। स्पष्ट है कि बौद्ध संघ एक गणतन्त्रीय व्यवस्था थी तथा तथागत के लिये भिक्षु संघ का संगठन गणराज्यों के संविधान से सर्वथा असम्बद्ध न था। ‘महापरिनिर्वाणसूत्र' में वज्जियों के सात अपरिहेय धर्मो का उल्लेख
जिनमें प्रथम चार धर्म भिक्षुओं के जीवन को पूर्णत: अनुशासित करने वाले हैं। वे चार हैं- संघ की सन्निपात बहुलता, समग्रता, यथाप्रज्ञप्त शिक्षापादों का असमुच्छेद और स्थविर भिक्षुओं का सत्कार । शेष तीन धर्म हैं- तृष्णा के वश में न होना, आरण्यक शयनासन में सापेक्ष होना और प्रत्यात्म स्मृति को उपस्थापित करना आदि। वास्तव में यही बौद्ध धर्म के चतुर्विध संघों की सफलता का सूत्र था कि लोग मिलजुलकर आपस में बातचीत कर महत्त्वपूर्ण निर्णय लेते थे, परम्परानुसार चलते थे और बड़े-बूढ़ों का नेतृत्व स्वीकार करते थे।
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जैन संघ में भी अनेक गणों, गच्छों एवं शाखाओं का समावेश होते हु भी वह एक स्वचालित संस्था थी। संघ का मुख्य आधार स्तम्भ भिक्षु भिक्षुणी व श्रावकश्राविका थे, जिनके आपसी सामंजस्य व सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध से जैन संघ पुष्पित और पल्लवित हुआ। श्रावक-श्राविका और भिक्षु भिक्षुणियों के मध्य अत्यन्त भावपूर्ण सम्बन्ध ने संघ को लम्बे समय तक कलह और विवाद से दूर रखा। दोनों ही संघ अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन भलीभाँति करते थे। श्रावक-श्राविका संघ में नैतिक पतन होने पर श्रमण संघ वहाँ अध्यात्मपूर्ण उपदेश देकर उनका चारित्रिक उत्थान करता था और उपासक वर्ग भी हमेशा भिक्षु भिक्षुणियों के खान-पान आदि की समुचित व्यवस्था बिना किसी भेद-भाव के करते थे। यही कारण था कि अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी उनके आपसी सहयोग से यह चतुर्विध संघ अविच्छन्न रहा ।
यहां एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी ने अपने-अपने नये धर्म और संघ की स्थापना की तब उस वक्त भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के संघ से बड़े अन्य संघ भी मौजूद थे, किन्तु ऐसी क्या वजह थी कि ये दोनों संघ इतने आगे बढ़ गये विशेषकर बौद्ध संघ जिसने न केवल हिन्दुस्तान, अपितु पूरे एशिया पर अपना प्रभाव डाला। इसका उत्तर है कि यद्यपि उस समय के अन्य संघ भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के संघ से बड़े थे, लेकिन वे साधारण जनसमाज की चिन्ता नहीं किया करते थे । उनमें से अधिकतर लोगों का ध्येय तपश्चर्या द्वारा मोक्ष प्राप्त करना था। गाँवों और शहरों में प्रवेश करके वे गृहस्थों से भिक्षा लेते और समय-समय पर अपने सम्प्रदाय के तत्त्वज्ञान से उन्हें अवगत कराते । फिर भी गृहस्थों के हित/सुख के लिये वे विशेष प्रयत्नशील नहीं थे। किन्तु जैन और बौद्ध