________________
: श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७
४९
अवांय - ईहा द्वारा ग्रहण किए हुए विषय में विशेष का निश्चय हो जाना अवाय है। ‘प्रमाणनयतत्त्वालोक' में अवाय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः । अर्थात् इहित अर्थ विशेष का निर्णय अवाय है, यथा शब्द सुनकर यह ईहा हुई कि ये शब्द पुरुष के होने चाहिए । अवाय में यह निर्णय हो जाता है कि ग्रह शब्द पुरुष का ही है । अवाय के लिए कहीं-कहीं अपाय शब्द का भी प्रयोग होता है। इसे सम्भावना, विचारणा, जिज्ञासा आदि भी कहते हैं।
६८
धारणा - अवाय द्वारा ग्रहण विषय का दृढ़ हो जाना धारणा है। अकलङ्क एवं विद्यानन्द स्मृति के हेतु को धारणा मानते है । ५° किन्तु वादिदेवसूरि ने धारणा को स्मृति का साक्षात् हेतु न मानकर उसे पारम्परिक हेतु माना है५१ और कहा है कि अवाय ज्ञान जब दृढ़तम अवस्था को धारण कर लेता है, तो उसे धारणा कहते हैं । '
५२
अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में आवश्यक क्रम है, किन्तु शीघ्रतापूर्वक होने से क्रम का भान नहीं होता। जिस प्रकार कमल के सैकड़ों पत्तों को एक साथ छेदे जाने पर यह ज्ञान नहीं होता कि कौन - सा पत्ता कब छेदा गया, किन्तु उनका छेदन-क्रम से ही होता है। इसी प्रकार अवग्रह आदि भी क्रम से ही होते हैं, किन्तु शीघ्र सम्पन्न होने के कारण इनके क्रम का बोध नहीं रहता है।
५३
५६
५७
श्रुतज्ञान - श्रुतज्ञान का अर्थ है वह ज्ञान जो श्रुतं अर्थात् शास्त्र - निबद्ध है। आप्तपुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में श्रुतज्ञान को आगमज्ञान के नाम से विश्लेषित किया गया है। आप्तपुरुष के वचन आदि से आविर्भूत- अर्थज्ञान को आगम कहा गया है । ५४. उपचार से आप्तपुरुष के वचनों को भी आगम माना गया है। ५५ क्योंकि उन वचनों से ही अर्थज्ञान प्रकट होता है । आप्तपुरुष को प्रतिपादित करते हुए वादिदेवसूरि ने कहा है कि जो अभिधेय वस्तु को यथावस्थित रूप से जानता हो तथा जैसा जानता हो वैसा कहता हो, वह आप्त है। आप्तपुरुष का वचन अविसंवादी होता है ।" उसमें धोखा या वंचना नही होती है। आप्तपुरुष दो प्रकार के होते हैं- लौकिक एवं लोकोत्तर । ८ माता-पिता, गुरुजन आदि लौकिक आप्त हो सकते हैं तथा तीर्थंकर अथवा केवलज्ञानी पुरुष लोकोत्तर आप्त कहे जाते हैं । ५१ तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित वाणी ही आगम है। आगम शब्द के स्थान पर अकलङ्क के ग्रन्थों में 'श्रुत' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। श्रुतज्ञान की उत्पत्ति प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा आगम किसी से भी हो सकती है। सामान्यतया श्रुतज्ञान शब्दयुक्त ज्ञान के लिए प्रयुक्त होता है जिसमें आगम प्रमाण भी आता है नय, सप्तभंगी, स्याद्वाद आदि श्रुतज्ञान के ही फलित हैं। परन्तु वादिदेवसूरि के ग्रन्थों में श्रुतज्ञान के स्थान पर आगमज्ञान (प्रमाण) की ही चर्चा मिलती है।