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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
१. अनुगामी- उत्पत्ति स्थान को छोड़ देने पर भी जो अवधिज्ञान नष्ट नहीं होता उसे अनुगामी कहते हैं। यह ज्ञान ज्ञाता के साथ-साथ अनुगमन करता है। २. अननुगामी- उत्पत्ति स्थान का त्याग कर देने पर जो ज्ञान नष्ट हो जाता है वह अननुगामी होता है। प्रायः देखा जाता है कि किसी-किसी भविष्यवक्ता की भविष्यवाणी अपने निश्चित स्थान पर ही सटीक हो पाती है, अन्यत्र नहीं। ३. वर्धमान- जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के बाद अनुकूलता पाकर बढ़ता जाता है उसे वर्धमान कहते हैं। ४. हीयमान- जो ज्ञान उत्पत्तिकाल में अत्यधिक प्रकाशमान हो, किन्तु बाद में क्रमश: घटता जाय वह हीयमान अवधिमान है। ५. अवस्थित- जो अवधिज्ञान न घटता है और न बढ़ता है, उसे अवस्थित कहते हैं। यह केवलज्ञान की प्राप्ति तक अपने अपरिवर्तनीय अवस्था में रहता है। ६. अनवस्थित- जो कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी प्रकट और तिरोहित होता है, उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं।
__ अवधिज्ञान के उपर्युक्त भेद गुण की दृष्टि से हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी अवधिज्ञान के अनेक विकल्प हैं। द्रव्य की दृष्टि से परमाणु, द्विप्रदेशी, -त्रिप्रदेशी आदि विकल्प; क्षेत्र की दृष्टि से देशावधि, परमावधि और सर्वावधि; काल की दृष्टि से अवलिका का असंख्येय भाग आदि विशिष्ट कालखण्ड। इसी प्रकार भाव की दृष्टि से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के एक गुणात्मक, द्विगुणात्मक आदि विकल्प।६४
__ मनःपर्ययज्ञान- जीव को उसके सम्यक्-चारित्र एवं साधना के कारण एक ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है जिससे वह अन्य व्यक्तियों के अन्त:करण में वर्तमान सीमित वस्तु सम्बन्धी भावों का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। ज्ञान की इस अवस्था को मन:पर्यवज्ञान कहते हैं। मनःपर्यव ज्ञान के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों में दो मत है।६५ प्रथम मत के अनुसार मनःपर्यवज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्त्यमान अर्थों को जाना जाता है। इसकी विवेचना 'नन्दीसूत्र'६६ एवं 'तत्त्वार्थभाष्य'६७ में मिलती है। द्वितीय मत 'विशेषावश्यकभाष्य',६८ 'नन्दीचूर्णि'६९ आदि ग्रन्थों पर अवलम्बित है, जिसके अनुसार मन:पर्यवज्ञान द्वारा मात्र दूसरे के मन की पर्यायों को जाना जाता है तथा उसमें चिन्त्यमान पदार्थों का ज्ञान अनुमान प्रमाण द्वारा होता है। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में मन:पर्यवज्ञान को विवेचित करते हुए कहा गया है कि 'जो ज्ञान संयम की विशिष्ट शुद्धि तथा मन:पर्यव ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे मन:पर्यवज्ञान कहते हैं।७० वस्तुत: मनःपर्यवज्ञानी दूसरे के मन की पर्यायों को ही जानता है, उसके मन के चिन्त्यमान पदार्थों को तभी जाना जा सकता है जब मन की पर्यायों को जान लिया गया हो। संयम की विशुद्धता मन:पर्यवज्ञान का बहिरंग कारण है और मन:पर्यव ज्ञानावरण का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है।