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जैन ज्ञानमीमांसा : प्रमाणनयतत्त्वालोक के विशेष सन्दर्भ में : ७१
मन:पर्यव ज्ञान के दो भेद हैं- ऋजुमति तथा विपुलमति।१ ज्ञान के विषय को सामान्य रूप से ग्रहण करनेवाला ऋजुमति कहलाता है तथा जो विषय को विशेष रूप से ग्रहण करता है उसे विपुलमति कहते हैं। इसमें ऋजुमति से विपुलमति ज्ञान अधिक विशुद्ध है।७२ दोनों प्रकार का मन:पर्यवज्ञान संयत एवं अप्रमत्त मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्राणी को नहीं होता।
केवलज्ञान- जब ज्ञान के बाधक सभी कर्म आत्मा से पूर्णतया दूर हो जाते हैं, तब अनन्त ज्ञान प्राप्त होता है। इसे केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान की विशुद्धतम अवस्था है। 'विशेषावश्यकभाष्य'७३ में कहा गया है कि केवलज्ञान शुद्ध, सकल, असाधारण तथा अनन्त होता है। इस ज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त क्षायोपशमिक ज्ञान स्वत: समाप्त हो जाते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है कि मोह के क्षय से ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है। इसकी प्राप्ति के पश्चात् आत्मा पर किसी भी प्रकार का ज्ञानावरण शेष नहीं रहता है। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष के अन्तर्गत रखा गया है।७५ केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति को कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, वह सर्वज्ञ हो जाता है। सर्वज्ञ को विश्व के समस्त पदार्थों के तीनों कालों की समस्त पर्यायों का ज्ञान स्पष्ट रूपेण होता रहता है। सर्वज्ञ का शाब्दिक अर्थ ही होता है सब-कुछ जानने वाला। जिसका ज्ञान पदार्थ विशेष तक ही सीमित नहीं होता, अपितु जिसे समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है, वहीं सर्वज्ञ है।६ सर्वज्ञ भूत, वर्तमान एवं भविष्य के समस्त द्रव्यों एवं पर्यायों को जानता है। इस प्रकार केवलज्ञानी सर्वज्ञ और निर्दोष होता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा अत्यन्त समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण है। जैन दर्शन में ज्ञानमीमांसा का जितना विशद् विवेचन मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य भारतीय दर्शनों में जहाँ स्वतंत्र रूप से ज्ञानमीमांसा का वर्णन प्राप्त नहीं होता है, वहीं जैन दर्शन में विस्तृत एवं विलक्षण ज्ञानमीमांसा की उपलब्धि होती है जो जैन दर्शन की विशिष्टता कही जा सकती है। जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ ज्ञानमीमांसा को प्रमाणमीमांसा से अलग रखकर स्वतंत्र रूप से विवेचित किया गया है। लेकिन वादिदेवसूरि विरचित 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में प्रमाण के साथ-साथ ज्ञानमीमांसा की विवेचना भी हुई है जिसका सविस्तार वर्णन उनकी स्वोपज्ञ भाष्य ‘स्याद्वादरत्नाकर' में मिलता है। सन्दर्भ :
१. अग्रवाल, डॉ० गीतारानी, भारतीय ज्ञानमीमांसा, भारतीय विद्या संस्थान,
वाराणसी १९९९, पृ०-६.