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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
प्रमाणनयतत्त्वालोक में अलग से ज्ञान की चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ज्ञान की चर्चा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत ही की गई है। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' के अनुसार ज्ञान को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
ज्ञान
प्रत्यक्ष
परोक्ष
स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क
अनुमान
आगम
सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
लौकिक लोकोत्तर
इन्द्रिय निबन्धन
अनिन्द्रिय सकल पारमार्थिक विकल पारमार्थिक निबन्धन प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष
अवग्रह ईहा अवाय धारणा
अवधि मन:पर्यव उपलब्ध आगम ग्रन्थों के आधार पर कहा जा सकता है कि 'भगवती' में उपलब्ध ज्ञान चर्चा उसके विकास का प्रथम चरण है। 'नन्दी' में ज्ञान चर्चा को विस्तार से देखा जा सकता है। फिर 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में ज्ञान विवेचना का एक अलग रूप दृष्टिगत होता है। परन्तु हर दृष्टि से ज्ञान के पाँच ही मुख्य प्रकार प्राप्त होते हैं। विकास-क्रम की दृष्टि से देवर्धिगणि के काल तक ज्ञान की पृथक्-पृथक् भूमिकाएँ बन गई थीं, क्योंकि 'भगवती' में प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग प्राप्त नहीं होता है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष का विभाग 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है।
मतिज्ञान- आगमों में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। इसके सम्बन्ध में उमास्वाति ने कहा है कि जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के माध्यम से उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं।२६ उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, और अभिनिबोध को एकार्थक बतलाया है।३७ 'विशेषावश्यकभाष्य' में मतिज्ञान के लिए ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।३८ इन शब्दों की एकार्थबोधकता के सम्बन्ध में आशंका होती है, क्योंकि इनके विषय भिन्न-भिन्न हैं। निमित्त भी इनका एक नहीं होता है, फिर भी इनको पर्यायवाची मानना शंका को उत्पन्न करता है। पं० सुखलाल संघवी कहते हैं कि विषय-भेद और कुछ निमित्त-भेद होने पर भी मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता ज्ञान का अन्तरङ्ग कारण,