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जैन - जैनेतर धर्म-दर्शनों में अहिंसा 1. ५१
मत करो, गलत साक्षी मत बनो एवं माता-पिता के प्रति श्रद्धा भाव रखो। किसी जीव की हिंसा मत करो। तुमसे कहा गया था कि तुम अपने पड़ोसियों से प्रेम करो और दुश्मनों से घृणा । पर मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम अपने दुश्मन से प्यार करो और जो लोग सताते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो। तभी तुम स्वर्ग में रहने वाले अपने पिता की सन्तान कहलाओगे, क्योंकि वह भले और बुरे दोनों पर अपना सूर्य उदय करता है।२७ईसाई धर्म में दान को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। कहा गया है - यदि कोई ईश्वर को जानने का दावा करता है और दान को नहीं जानता तो इसका मतलब है कि वह ईश्वर को पूर्णरूपेण नहीं जानता है । क्योंकि दान ही तो उसका सार है जिसके द्वारा ईश्वर को जाना जा सकता है । २८
यहूदी धर्म में अहिंसा
यहूदी धर्म में निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों प्रकार की अहिंसा का विवेचन मिलता है। मोजेज द्वारा दिये गये दस आदेशों में से छठे, सातवें, आठवें, नौवें और दसवें आदेशों में कहा गया है - किसी को मत मारो, व्यभिचार मत करो, पड़ोसी के खिलाफ गलत धारणा मत बनाओं एवं पड़ोसी की स्त्री, नौकर, नौकरानी, बैल, गधे आदि को लोलुपता की दृष्टि से मत देखो । २१ इसी तरह विधेयात्मक अहिंसा को निरूपित करते हुए कहा गया है- बन्धुत्व के प्रति प्रेम जाति एवं धर्म की सीमाओं के ऊपर है, इसलिए अपने पड़ोसी को प्यार करो, उनके प्रति मन में घृणा का भाव मत रखो। पड़ोसी से प्यार करना सबसे बड़ा धर्म है, न्याय है और पड़ोसियों से घृणा करना ईश्वर से घृणा करना है। तुम दूसरों से भी वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम अपने प्रति चाहते हो।
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पारसी धर्म में अहिंसा
पारसी धर्म, जिसका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अवेस्ता' है, के जन्मदाता महर्षि जरथुस्त्र थे। ‘अवेस्ता' के सम्बन्ध में ऐसी धारणा है कि इस धर्म के सर्वोच्च एवं सर्वशक्तिमान आराध्य अहुरामजदा ने स्वयं अपने हाथों से इसे जरथुस्त्र को दिया था। अवेस्ता के अनुसार मनुष्य के प्रमुख तीन कर्तव्य हैं- शत्रु को मित्र बनाना, दानव को मानव बनाना और अज्ञानी को ज्ञानी बनाना। इनमें से शत्रु को मित्र बनाना अहिंसा की परिधि में आता है।
ताओ धर्म में अहिंसा
लाओत्से ने कहा है- कार्य करना परन्तु कर्तापन का भाव मन में न आना, कर्म करना पर उससे उत्पन्न दुःख-दर्द की अनुभूति नहीं करना, भोजन करना, पर