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४८ : श्रमण, वर्षं ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७
न्यायपूर्वक प्राप्त वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण है। सही अर्थों में दान वही है जो समता की भावना के साथ दिया जाए। बड़ा या छोटा समझ कर नहीं । करुणा को परिभाषित करते हुए ‘योगशास्त्र' में कहा गया है - जो गरीब है या दुःख-दर्द से सन्तप्त है या भयभीत है या प्राणों की भीख माँगते हैं, ऐसे प्राणियों के कष्ट निवारण की भावना का होना ही करुणा है। *
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वैदिक धर्म में अहिंसा
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वैदिक परम्परा के अन्तर्गत 'ऋग्वेद' में 'पुमान् पुमांसं परि पातु विश्वतः ५ अर्थात् मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह एक-दूसरे की रक्षा करे, के रूप में एकदूसरे के सरंक्षण की बात कही गयी है। 'ऋग्वेद' के पाँचवें मण्डल में 'अर्यभ्यं वरुण मित्र्यं वा सखायं वा समिद् भ्रातरं वा ६, उद्धृत कथन अपने मित्र या हितैषी के प्रति हुई गलती के लिए अपराध बोध के साथ-साथ अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को भी प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार 'यजुर्वेद' में 'मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे" के रूप में सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव की कामना की गई है। इतना ही नहीं पृथ्वी लोक, द्युलोक और अन्तरिक्ष लोक के साथ-साथ जल, औषधियाँ, वनस्पतियाँ, देवता, ब्रह्म सभी शान्ति प्रदान करने वाले हों, ऐसा उद्घोष भी मिलता है, अत: यह नहीं कहा जा सकता कि वैदिक काल में अहिंसा का भाव नहीं था। इसी प्रकार उपनिषदों में भी यत्र-तत्र अहिंसा के स्वर मुखरित हुए हैं। ‘छान्दोग्योपनिषद्’”, ‘प्राग्निहोत्रोपनिषद् आदि इसके प्रमाण हैं । 'छान्दोग्योपनिषद्' में प्रजापति ने मनु से कहा है- जो नियमानुसार गुरु के कर्तव्य कर्मों को समाप्त करता है, वेद का अध्ययन करता है तथा पुत्र - शिष्यादि को धार्मिक कर सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अन्त:करण में स्थापित करता हुआ शास्त्र की आज्ञा से अन्य प्राणियों की हिंसा नहीं करता है वह निश्चय ही आयु समाप्ति के पश्चात् ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है । १२ ‘शाण्डिल्योपनिषद्' में अहिंसा को दश यमों के अन्तर्गत गिनाया गया है । दश यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दया, आर्जव, क्षमा, धृति, मिताहार तथा शौच | इसी प्रकार 'मनुस्मृति' १२, 'रामायण'१३, 'महाभारत' १४ में भी अहिंसा के स्वर मुखरित हुए हैं। 'महाभारत' के शान्तिपर्व १६ में विचक्षणु द्वारा नारद को अहिंसा के विषय में बताते हुए कहा है- जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, वे मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्मा के विषय में सन्देह है, जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों ने हिंसा का समर्थन किया है । परन्तु मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बलिवेदी पर पशुओं का बलिदान करते हैं। सम्पूर्ण भूतों के लिए जिन धर्मों का विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है। यदि कहें कि मनुष्य युगनिर्माण के लिए जो वृक्ष काटते हैं, और यज्ञ के नाम पर पशुबलि देकर जो मांस खाते
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