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वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में सामाजिक पारस्परिकता : ४१
लेना आदि। क्षत्रिय के धर्म हैं- शासन करना और सुरक्षा प्रदान करना । वैश्य के धर्म हैं- कृषि और व्यापार तथा शूद्र का धर्म है- सेवा करना । सामाजिक स्तर पर ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और शूद्र निम्न स्तर का समझा जाता है। इस वर्ण-व्यवस्था के दो आधार हैं- जन्म और कर्म । जन्म के आधार पर यह माना जाता है कि ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हुआ व्यक्ति आजीवन श्रेष्ठ और सम्मानित है। भले ही वह अनाचार, दुराचार कुछ भी करे । शूद्र कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति हमेशा निम्न स्तरीय माना जाता है चाहे वह भले ही कितना ही सुकर्म करे । कर्म - सिद्धान्त के आधार पर यह माना जाता है कि जो जैसा कर्म करता है वह अपने कर्मानुसार ऊँच या नीच स्तर पर होता है। वैदिक परम्परा में जन्मगत तथा कर्मगत दोनों ही मान्यताएँ हैं । 'रामायण' में कर्म अर्थात् श्रम विभाजन की दृष्टि से समाज को चार भागों में बाँटा गया है। वाणी के स्थान मुख से प्रकट होने वाले ब्राह्मण मनुष्य जाति के शिक्षक रूप माने गये हैं। बल-वीर्य सूचक भुजाओं से सम्बन्ध होने के कारण क्षत्रियों का कर्म शस्त्र धारण करना, प्रजा की रक्षा करना है। शरीर के अधोभाग- जांघों से निकलने वाले वैश्यों का काम श्रमपूर्वक धन और अन्न का उत्पादन करके समाज का भरण-पोषण करना है। इसी प्रकार पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति बताकर उन्हें अन्य वर्णों की सेवा करना बताया गया है। श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धियकर्तारमव्ययम् ।
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों की सृष्टि मैंने गुण और कर्म के आधार पर की है। वर्ण जन्म द्वारा नहीं गुणों द्वारा निर्धारित होता है । वर्ण का प्रमाण गुण होता है, जैसे साधु का प्रमाण साधुता है। लेकिन साधु कुल में जन्म लेने से कोई साधु नहीं बन जाता । श्रेष्ठता का प्रमाण श्रेष्ठ कर्म है। श्रेष्ठ पिता का नाम पुत्र को श्रेष्ठ नहीं बना सकता, अर्थात् जो व्यक्ति स्वयं है वही उसका वर्ण है। व्यक्ति का जीवन ही उसका वर्ण निश्चित करता है। कर्मगत मान्यता प्राचीन काल
श्रीकृष्ण के द्वारा प्रतिपादित हुई और गीता जिसमें यह मान्यता प्रतिपादित है, वह आज भी हिन्दू धर्म का एक प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है । मनु ने भी कर्म और गुण के आधार पर ब्राह्मणों को सात्विक गुणों तथा विशुद्ध कर्मों वाला, क्षत्रिय को विषय भोग में आसक्त, वीरता युक्त रजोगुण वाला, वैश्यों को रजस और तमस गुणों वाला और शूद्रों को पूर्ण तामसी अर्थात् प्रमादी, अधीर, लोभी, संस्कारच्युत और नास्तिक माना है।' 'महाभारत' के शान्तिपर्व में प्रत्येक वर्ण को विभिन्न रंगों से इंगित किया गया है - ब्राह्मण श्वेत, क्षत्रिय लोहित, वैश्य पीत और