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श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ जनवरी-मार्च २००७
वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में सामाजिक पारस्परिकता
डॉ०
० सुधा जैन*
वैदिक एवं श्रमण परम्परा भारतीय संस्कृति की प्रमुख शाखाएँ हैं। अतएव इनमें पारस्परिक सम्बन्ध का होना आवश्यक है। लेकिन काल के प्रवाह में एक ऐसा भी समय आया जब ब्राह्मणवाद का वर्चस्व बढ़ा, फलतः श्रमण परम्परा की जैन शाखा के लोग अपने मूल स्थान बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश को छोड़कर राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में तथा दक्षिण भारत के पर्वतों और जंगलों के बीच चले गये। दूसरी शाखा बौद्ध परम्परा के अनुयायी बिल्कुल देश छोड़कर विदेशों में जा बसे। यही कारण है कि बौद्ध परम्परा की अपेक्षा वैदिक और जैन परम्परा में सामाजिक पारस्परिकता की झलक ज्यादा दिखाई देती है।
भारतीय जीवन में जब भी समाज की कोई बात उठती है तो वैदिक परम्परा की वर्ण-व्यवस्था सर्वप्रथम सामने आती है, क्योंकि उससे समाज की उत्पत्ति तथा सामाजिक वर्गीकरण का बोध होता है। वेद वैदिक परम्परा के आधार ग्रन्थ हैं जिनमें 'ऋग्वेद' सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है। 'ऋग्वेद' के पुरुषसूक्त में यह बताया गया है कि परमपुरुष के मुख, भुजा, उदर/ जाँघ तथा पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति हुई है।' 'रामायण' में भी कहा गया है कि विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जाँघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं।
जैन परम्परा में न तो सृष्टि की बात होती है और न ही किसी सृष्टिकर्ता की। समाज की उत्पत्ति नहीं होती है बल्कि विकास और ह्रास होता है। जैन धर्मानुसार जिस काल में हम लोग रह रहे हैं, उसका प्रारम्भ युगलिया काल से होता है। युगलिया काल में मनुष्य पक्षियों की भाँति युगल रूप में रहते थे। फिर उसके बाद कुलकर व्यवस्था आयी जिसके अन्तिम कुलकर भगवान ऋषभदेव के पिता नाभिराय थे। भगवान ऋषभदेव जिन्हें जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर माना जाता है, से समाज का विकास शुरू हुआ। उन्होंने असि, मसि, कृषि एवं लिपि, गणित, कला आदि की शिक्षा दी।
वैदिक परम्परा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये चार वर्ण माने गए हैं। । ब्राह्मण के कर्म या धर्म हैं- पढ़ना- पढाना, यज्ञ करना करवाना, दान देना तथा
*प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी० आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी - २२१००५