Book Title: Sramana 2007 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 33
________________ २६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७ नये युग में महावीर और ईसा का मूल्यांकन : विश्व के विभिन्न धर्म विभिन्न क्षेत्रों में एवं विभिन्न युगों में विकसित हुये हैं। उन युगों की तुलना में, आज के युग में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं और अनेक नई समस्यायें सामने आई हैं। प्राचीन युग में धर्म के कारण अनेक यातनायें दी गई और अनेक युद्ध हए। ये प्रक्रियायें तो अभी भी चाल हैं, पर इनमें अब राजनीति और अर्थशास्त्र भी प्रमुख बन रहे हैं और अनेक में धर्म भी अंतरंगतः समाहित है। साथ ही, अब जातिवाद, विनाशक और परमाणविक अस्त्र, जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिक विस्तार और प्रदूषण, प्राकृतिक स्रोतों का अति-दोहन, नैतिक मूल्यों का ह्रास, संकीर्ण मानसिकता, अति-व्यक्ति-स्वातंत्र्य धार्मिक युद्ध आदि अनेक समस्यायें समाहित हुई हैं। ईसाई धर्म के अनुसार, स्थितियाँ और विकराल हो सकती हैं। ईसाई जन वर्तमान युग को पापशक्ति के रूप में 'शैतान का राज्य' मानते हैं। इससे हमारे भावी विनाश की संभावना है। फलत: वे करुणा और पाप-नाशक पुण्य में विश्वास के द्वारा भावी मुक्ति के आशावादी हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ये स्थितियां काल-प्रभाव को व्यक्त करती हैं, क्योंकि वर्तमान में अवनति-काल चल रहा है। इसमें धार्मिक विश्वास और सदाचार की हानि होगी। वैज्ञानिक युग की प्रगति को यह भौतिक प्रगति मानता है जो आध्यात्मिक विकास के विलोम में चलती है। महावीर मुख्यत: सभी आत्माओं की समान क्षमता के आधार पर प्राणियों को बाहरी वातावरण से अपरिग्रह, अनेकांत और अहिंसा के अभ्यास के माध्यम से प्रजातंत्रीय सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास का उपदेश देते हैं जो करुणा एवं सेवा के उपदेश से अधिक प्रभावी है। __ महावीर और ईसा के युग में शिक्षा एवं विचार-प्रवणता अत्यल्प (लगभग ३ प्रतिशत) थी। वर्तमान युग में यह ६६-१०० प्रतिशत तक जा पहुंची है। यह पाया गया है कि परम्परावाद और शिक्षा के प्रतिशत के बीच विलोम अनुपात होता है। फलतः, तुलनात्मकत: विभिन्न धर्मों का अध्ययन अब एक रोचक विषय बन गया है। इससे सभी धर्मों की समानताओं और असमानताओं का भान होने लगा है। अब प्रत्येक धर्म का अध्ययन सापेक्ष दृष्टि से होता है। नामित धर्मों की अपूर्वता या अनुपमता समाप्त हो रही है। लोग अनीश्वरवाद की ओर मुड़ रहे हैं तथा एक-दूसरे के विचारों और मान्यताओं के प्रति सहिष्ण बन रहे हैं। यद्यपि समन्वयवाद का प्रचलन तो चौथी-पांचवी सदी में ही हो गया था, पर दमन के कारण इसके प्रकट होने में एक हजार वर्ष लग गये। अनेक प्राचीन मान्यतायें मिथ्यात्व की कोटि में आने लगी हैं। जगत् के उद्धारकों की संख्या ४२ तक मानी जाने लगी है। यही नहीं, भूतकालीन

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